Sunday, February 5, 2012

मैं हमेसा यहीं हूँ तुम्हारे लिए..!!!


आखिर मैं तुम्हें क्यों रोकूँ…?
क्यों कहूँ के तुम सब कुछ हो मेरे लिए…?

क्या रोकने से तुम रुक जाते…?
फिर से एक सवाल खड़ा हो गया ज़िंदगी में…

अगर रुकना होता….
तो मेरी आँखों में जो इंतज़ार है तुम्हारे लिए,
उसे देखकर रुक जाते…

मेरे होठों की खामोसी,
जो दर्द-ए-मोहब्बत कह रही है,,
उसे सुनकर रुक जाते…

मेरी बाँहों का खालीपन,
जो चीख - चीख कर तुम्हारे दिल पे दस्तक दे रहा है…
उस दस्तक पे ठहर जाते…

जब तुमने महसूस ही नहीं किया इन सब को…
तो मेरे दो शब्द "मत जाओ"
कहने से क्या होता…?

शायद कुछ नहीं…
क्योकि शायद इन सब में…
तुम्हारी ख़ुशी नहीं थी…

तभी तो जब तुम जा रहे थे 
इन सब ने तुम्हे रोकने,
की कोशिश तो बहुत की…

मगर 'कसक’ के दिल की,
कसक कुछ और थी…
वो जीत कर हारना नहीं चाहता था…

वो चाहता था, और चाहता है,
के तुम खुश रहो…

'कसक’ अब इसी मोड़ पर खड़ा है,
आँखों में वही इंतज़ार की बूँदें लिए,
होठों के बही ख़ामोशी लिए 
और बाँहों में खालीपन के साथ…

अगर कभी तुम इस मोड़ से गुजरो,
तो मैं हूँ यहाँ, तुम्हारा हाथ थामने के लिए…

मैं हमेसा यहीं हूँ तुम्हारे लिए.. 
मैं हमेसा यहीं हूँ तुम्हारे लिए.. 

अमित बृज किशोर खरे 
"कसक"

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