कितना आसान होता है ना जब
दो लोगों में से चुनना हो।
अपनी अच्छाइयों और दूसरे की
बुराइयों में से चुनना हो।
अपनी हर सच्ची बातें
और उसके एक झूंठ में
से चुनना हो।
अपने हर ज़िन्दा जज्वात
और उसके मरे हुए अहसास में से चुनना हो।
जब चुनना हो अपना कल
उसके बीते हुए कल में से।
जैसे चुनना हो एक बूँद
सागर के ठहरे जल
में से।
चुनना हो अपनी ख़ुशी,
उसके बहते असुअन धार से।
जैसे चुनना हो जीत अपनी,
उसकी अनचाही सी हार से।
कितना आसान होता है ना जब
दो लफ्जों में से चुनना हो।
कुछ हसीन पल, सुकून से गुज़रे उन
हफ़्तों में से चुनना हो।
अपनी हर एक ज़िद
और उसके समझौतों में से चुनना हो।
अपनी हर नई साँस
और उसकी अनेक मौतों में से चुनना हो।
चुनना हो चंद रातें,
कई वीरान महीनों से।
या चुनना हो अपने सपने
उसके व्याकुल नैनों से।
चुनना हो अपनी बातें
उन बातों के गुलदस्ते से।
चुनना हो कुछ टूटे
रिश्ते, उस फटे हुए
से बस्ते से।
कितना आसान होता है ना जब
दो रिश्तों में से चुनना हो।
एक रिश्ता तोड़ना हो, दूजे का ताना - बाना
बुनना हो।
आज अभी इस वक़्त के
बदले कल की झांकी
चुनना हो।
जब एक मय से
मन भर जाये, और
दूजा शाकी चुनना हो।
चुनना हो जब नई
छुअन दूजे का हाथ छोड़कर
भी।
चुनना हो जब नई
डगर, इस शहर से
मुँह मोड़कर भी।
कितना आसान होता है ना जब
मैं और तुम में
चुनना हो।
पर उतना ही मुश्किल होता
है, जब चुनाव खुद
से हो,
और खुद से खुद को
चुनना हो।
और खुद से खुद को
चुनना हो।
अमित बीके खरे 'कसक'
Insta ID: @amitbkkhare and @kasakastory
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