Friday, October 1, 2021

खुद से खुद को चुनना हो।


कितना आसान होता है ना जब दो लोगों में से चुनना हो।

अपनी अच्छाइयों और दूसरे की बुराइयों में से चुनना हो।

अपनी हर सच्ची बातें और उसके एक झूंठ में से चुनना हो।

अपने हर ज़िन्दा जज्वात और उसके मरे हुए अहसास में से चुनना हो।

 

जब चुनना हो अपना कल उसके बीते हुए कल में से।

जैसे चुनना हो एक बूँद सागर के ठहरे जल में से।

चुनना हो अपनी ख़ुशी, उसके बहते असुअन धार से।

जैसे चुनना हो जीत अपनी, उसकी अनचाही सी हार से।

 

कितना आसान होता है ना जब दो लफ्जों में से चुनना हो।

कुछ हसीन पल, सुकून से गुज़रे उन हफ़्तों में से चुनना हो।

अपनी हर एक ज़िद और उसके समझौतों में से चुनना हो।

अपनी हर नई साँस और उसकी अनेक मौतों में से चुनना हो।

 

चुनना हो चंद रातें, कई वीरान महीनों से।

या चुनना हो अपने सपने उसके व्याकुल नैनों से।

चुनना हो अपनी बातें उन बातों के गुलदस्ते से।

चुनना हो कुछ टूटे रिश्ते, उस फटे हुए से बस्ते से।

 

कितना आसान होता है ना जब दो रिश्तों में से चुनना हो।

एक रिश्ता तोड़ना हो, दूजे का ताना - बाना बुनना हो।

आज अभी इस वक़्त के बदले कल की झांकी चुनना हो।

जब एक मय से मन भर जाये, और दूजा शाकी चुनना हो।

 

चुनना हो जब नई छुअन दूजे का हाथ छोड़कर भी।

चुनना हो जब नई डगर, इस शहर से मुँह मोड़कर भी।

 

कितना आसान होता है ना जब मैं और तुम में चुनना हो।

पर उतना ही मुश्किल होता है, जब चुनाव खुद से हो,

और खुद से खुद को चुनना हो।

और खुद से खुद को चुनना हो।

 

अमित बीके खरे 'कसक'

Insta ID: @amitbkkhare and @kasakastory





मेरी कहानी (पार्ट - 12) - खिड़कियाँ

 


दिलों की हों या दीवारों की,

घरों की हो या मीनारों की।

हवा की रवानगी

और सांसों की दीवानगी

बनी रहनी चाहिए।

दरवाजे पे दस्तक भले ना हो,

पर खिड़कियों पे चहचहाहट

बनी रहनी चाहिए।

हवा तुझे छु के गुजरे, ये जरूरी तो नहीं

पर पर्दो के सरसराहट

बनी रहनी चाहिए।

 

ऐसी ही कुछ दो चार बिना सर पैर की कविताओं को गुनगुनाता हुआ, रोज सुबह घर से निकलता, पड़ोस में रहने वाली प्रिया मजूमदार की खिड़की को देखता हुआ काम पे निकल जाता। हर रोज प्रिया, अपनी खिड़की पे बैठी, एक हाथ में चाय का कप और दुसरे हाथ में मुंसी जी की कहानियां लिए, अपनी दुनियाँ में गुमसुदा मिलती। इससे ज्यादा हमारी मुलाकात कभी हुई नहीं थी। कुछ तकरीबन 3 से 4 महीने पहले ही वो हमारी सोसाइटी में सिफ्ट हुई थी।

 

किसी ज़माने में एक कप में साथ चाय पीने वाले आज अनजान हो चुके थे। मुंशी जी को इतने ध्यान से पड़ने वाली ने तो शायद कभी देखा ही नहीं था कि कौन उसकी खिड़की से नज़र मिलाकर उसको रोज पढता हुआ निकल जाता हैं। वो अपनी दुनियाँ में इस कदर गुम थी कि उसे गुमनामी और शांति में कोई अंतर मालूम नहीं पढ़ रहा था।

 

प्रिया के लिए उसकी खिड़की उसकी एक मात्र दोस्त, कमरा उसकी पूरी दुनियाँ और मुंशी जी कि किताबों के बचे पन्ने उसकी बची कुची सांसे। सब कुछ थम सा जाता था। वो बिन सर पैर की कविता, वो चाहते हुए उसकी खिड़की की तफर झांकना और उसको पल भर के लिए ही सही उम्र भर के लिए देखना। सब कुछ। चार साल पहले भरी हुई एक लंबी उड़ान खिड़की पे जाके सिमट जाती।

 

एक सुबह एक कबूतर के पंखो से चोट खाके मुंशी जी उन मुलायम हाथों से छिटककर नीचे कटीले झाड़ियों में आगिरे। उसका ध्यान टूटा और हड़बड़ाहट में आके नीचे झांककर देखा तो मुंशी जी और उनका शागिर्द यानि मैं दोनों उसे उम्मीद भरी नज़रों से निहार रहे थे।

 

उसने पहले मुंशी जी को देखा फिर मुझे और फिर हम दोनों को, जैसे की चुनाव कर रही हो कि किसको उठाना है, जो झाड़ियों में गिरे हैं या फिर जो गर्दिशों में घिरे हैं। थोड़ी सी कसमकस के बाद उसने मुंशी जी को उठाना बेहतर समझा। पर शायद एक पुराना रावता उन झील जैसी आँखों से होते हुए दिल के समंदर में प्यार का मोती तलाशने निकल चूका था। या शायद नहीं भी।

 

ये शिलशिला तकरीबन दो महीने तक चला। कभी छण भर के लिए एक दुसरे को देख लेना और कभी नहीं भी। पर जब भी उससे नज़र मिलती तो लगता ये आँखे कुछ कहना चाहतीं हैं पर कह नहीं पा रहीं थीं। मेरे हालात भी कुछ वैसे ही थे की कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं पा रहा था। मुझे तो ये भी नहीं पता था की पिछले 4 सालों से वो थी कहाँ, जब में उसकी सबसे ज्यादा तलाश में था। अब जब खुद को संभाल लिया है तो अब क्यों वो मेरे सामने खड़ी हुई हैं। और ये दो महीने भी इसी कसमकस में फ़ना हो गए।

 

आज भी प्रिया की खिड़की बंद थी, पिछले तीन दिनों से हवा की रवानगी रुकी है और मेरी धड़कने भी। कुछ अजीब सी कानाफूसी चल रही चारों तरफ। भीड़ लगी थी और उसी भीड़ में से कुछ पोलिस वाले एक आदमी को गिरफ्तार करके ले जा रहे थे। ये आदमी और कोई नहीं प्रिया का पति सुरेश मजूमदार था। पर ये माजरा क्या था। थोड़ा और नजदीक जाके पता किया तो मेरे पैरो के नीचे से जमीन खिसक गई। प्रिया अब इस दुनियाँ में नहीं थी उसने तीन दिन पहले ही मुंशी जी द्वारा लिखित उपन्यास सेवा - सदन का आखिरी पन्ना पड़ा था। उपन्यास को कमरे की मेज पर रखके उसने खुद को अपने उस दर्द से निजात दे दी जो उसे पिछले चार सालों से खाये जा रहा था। अगर मैं उसे नहीं दिखता तो शायद वो कुछ और दिन तक उस दर्द को सह पाती। पर शायद वो पुराना रावता जो उन झील जैसी आँखों से होते हुए दिल के समंदर में प्यार का मोती तलाशने के लिए निकला था वो उस समुन्दर में एक खालीपन छोड़ आया था। 

 

अकेलापन और दर्द ने उसे तोड़ दिया और वो दर्द था कैदियों की भाती एक कमरे में रहना, क्योंकि उसे कमरे से बाहर निकलने की मनाही थी। सारा रोजमर्रा का सामान जो जीने के लिए काफी था सुरेश उसे कमरे रख देता और बाहर से टाला लगाकर ऑफ़िस चला जाता। हफ्ते दर हफ्ते वो अपनी घुटन भरी जिंदगी के साथ उसी कमरे में रहती और अपनी एकलौती दोस्त उस खिड़की से बातें करती। सायद वो खुद भी अब इस कमरे से बाहर नहीं जाना चाहती थी। अपनी आखों के नीचे पड़ चुके डार्क सर्कल, अपने बदन पे पड़े बैल्ट और हाथों के निशान जो किसी भी फ़ाउंडेशन से अब नहीं जा सकते थे, किसको दिखाती। अपनी आप बीती किसको सुनाती। और जब हम दोनों की नजरें मिलीं तो दर्द फूटकर बाहर आगया। वो कैसे बताती के हर रोज उसके साथ रेप होता था और जो और कोई नहीं उसका पति करता था।

 

क्योंकि हमारे संविधान में मेरिटल रेप नाम का कोई भी क्राइम है ही नहीं। शादी के बाद ज़बरदस्ती सम्बन्ध रेप की कैटेगरी में आते ही नहीं।

 

प्रिया की आप बीती सिर्फ और सिर्फ वो खिड़की सुनती थी, उसकी एकलौती दोस्त। और अब वो दोनों अलग हो गए।

 

अब बेरंग होली और सुनसान दिवाली हो गई है।

तेरी सांसो से महकती वो खिड़की अब खाली हो गई हैं।

 

अमित बीके खरे 'कसक'

Insta ID: @amitbkkhare and @kasakastory