तुम्हारी बेरुखी से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा..
कुछ नहीं बदला...
सांसें उसी तरहा चलती हैं,,
बैसे ही जैसे पहले...
दिल धड़क रहा है अभी भी,
बैसे ही जैसे पहले...
आँखें भी झपकती हैं अभी तक,
बैसे ही जैसे पहले...
बस अब भरोसा नहीं,,,
सांसो पे, धड़कन पे, और आँखों पे,,,
पता नहीं कब इनका,
सफ़र रुक जाये...
भरोसा उतर गया,,
और कुछ भी नहीं बदला....
हवाएं अभी भी चलती हैं,
पहले की तरहा...
फिजायें अब भी आती हैं,
पहले ही तरहा...
बहारें अब भी आती है,
पहले की तरहा...
बस अब भरोसा नहीं,,,
हवाएं अब दूसरी हैं...
फिजायें अब दोसरीं हैं...
बहारें अब दूसरीं हैं...
ये मेरे लिए नहीं...
बस मेरे लिए नहीं...
मौसम अब बदल गया,,,
और कुछ भी नहीं बदला...
सूरज अब भी निकलता है,
पर तपन देता है...
साँझ अब भी होती है,
पर अब चुभन देती है...
रात अब भी आती है,
पर अब डर देती है...
बस और कुछ भी नहीं आता,
सिवाए तेरी यादों के..
और कुछ नहीं बदला,
पहले बंद आँखों में सपने थे,
पर अब नींद भी नहीं...
बस और कुछ भी नहीं बदला...
तुम्हारी बेरुखी से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा..
कुछ नहीं बदला...
बस और कुछ भी नहीं बदला...
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
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