अब तन्हाई में और मुस्कुराया भी नहीं जाता..!
वो संग-दिल सनम अब भुलाया भी नहीं जाता..!!
दर्द भी येसा है की बयां नहीं होता,
ये दर्द-ए-दिल किसी को सुनाया भी नहीं जाता..!
सोचता हूँ जाके सारी शिकायतें कर दूँ उससे,
पर उन प्यारी सी दो आँखों को रुलाया भी नहीं जाता..!
अजीब सा डर बस चूका हैं उजालों का ज़हन में,
और इस कम्बखत दिल को सुलाया भी नहीं जाता..!
चुन्ने को चुन लूँ दो उलझनें हैं मेरे दरमियाँ,
एक जिंदगी रुक गई, और एक मौत को बुलाया नहीं जाता..!
क्यों रास्तों में बीरानियाँ सी छाई हैं,
क्यों ये सफ़र अब गुज़ारा भी नहीं जाता..!
कह के गए थे वो के लौटेंगें चंद लम्हों में,
क्यों मुद्दतों के बाद भी मेरी कस्ती को किनारा भी नहीं आता..!
ये कैसी बेबसी है मुहब्बत-ए-हिज्र मै 'कसक'
दूर भी हैं मुझसे और उनको पुकारा भी नहीं जाता..!
अब तनहाई में और मुस्कुराया भी नहीं जाता..!
वो संग-दिल सनम अब भुलाया भी नहीं जाता..!!
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
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