मेरी आँखों के समुन्दर में जलन कैसी है..!
आज फिर दिल को तड़पने की लगन कैसी है..!!
अब किसी चाहत पे चरागों की कतारें भी नहीं,
अब तेरे शहर की गलियों में घुटन कैसी है..!
बरफ के रूप में ढल जायेंगे सारे रिश्ते,
मुझसे पूछो मुहब्बत की अगन कैसी है..!
में तेरे प्यार की खुवाहिश को न मरने दूंगा,
मौसम-ऐ-हिजर के लहजे में थकन कैसी है..!
रहगुज़रों में जो बनती रही काँटों की रिदा,
उसकी मजबूर सी आँखों में किरन कैसी है..!
मुझे मासूम सी पागल लड़की पे तरस आता है,
उसे देखो तो, मुहब्बत में मगन कैसी है..!
मेरी आँखों के समुन्दर में जलन कैसी है..!
आज फिर दिल को तड़पने की लगन कैसी है..!!
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
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