Thursday, March 25, 2021

रोशनदान


 

पुराने घरों की जो जान होते थे।

जितनी उचाई पे थे, उतने वीरान होते थे।

माना सबकी पहुंच से दूर हैरान होते थे

हमारे घर में सबसे ऊँचे रोशनदान होते थे। 

 

इतने सजीले उनके प्रकार नहीं थे,

खिड़कियों के जैसे अनेकों आकार नहीं थे।

पर सूरज की पहली किरन को,

गर्मी में तप्ति अगन को।

वही तो अपने अंदर समाते थे,

द्रणता से डटे थे कभी न लजाते थे।

 

सुबह हमें वही तो जागते थे,

साम को सुनहरी बही तो बनाते थे। 

भले काली अंधियारी रात क्यों न हो

आँखों में मेरी चंदा बही तो बसाते थे।

 

उनकी बाँहों में हर कोई दम भरता था,

एक गौरैया का परिवार, जो उनके आँचल में रहता था।

उस छोटे से झरोंखे में ना जाने क्या क्या समाया था,

कुछ भी हो पर उसने सबको गले लगाया था।

 

एक रोशनदान ही तो था भला कहाँ उसमे वो बात थी,

जब बुनियाद हिली तो उसके आँखों में भी बरसात थी।

दीवारें एक दूसरे का साथ छोड़ रहीं थीं,

खिड़कियां आपस में उलझ कर ही दम तोड़ रहीं थी।

दरवाजे के कुंडे एक दूसरे से ही ऐंठे थे,

जब घर की जमीं ने लकीरों के कई घाव अपने अंदर समेंटे थे।  

 

अब मेरे घर में रोशनदान नहीं है,

बालकनी तो है पर मेहमान नहीं हैं।

कुछ चंद यादें और कुछ अरमान छोड़ आये हैं,

हम अपने पुराने घर में रोशनदान छोड़ आये हैं।

 

अब कुछ भी पहले जैसा नहीं हैं,

घर जैसा था अब बैसा नहीं हैं।

दीवारों ने अपने नए घर बना लिए है,

और सपने भी अपने नए सजा लिए हैं।

 

बस पुरानी वहां एक ही बात है,

घर के बाहर एक टूटी सी खाट हैं।

कुछ ख्वाहिशें हैं कुछ टूटा सामान है,

और अपनी आखरी साँसे लेता एक बूढ़ा इंसान है।

हाँ वही तो रोशनदान है।

हाँ वही तो रोशनदान है।

 

तो अब अगर तुम्हें पता चल ही गया कि रोशनदान कौन है,

अपने हालातों पर हैरान और परेशान कौन है।

तो अब तुम उसकी हालत पर कोई शोक मत जताना, 

अब जो हो गया उसके पीछे कोई बहाना मत बताना।

 

क्योकि उस रोशनदान की रौशनी हमहीं ने तो चुराई है,

हमने खुद आसमान की चाहत में घोसले को आग लगाई है।

भले ही हमें नई खिड़कियों से चहचहाना अच्छा लगता है,

और नई दीवारों के ख्यावों का सच होजाना अच्छा लगता है।

 

पर याद रखता, वो इंसान जो तुम्हारा रोशनदान है।

बस बा-मुसक्कत चंद पलों का मेहमान है। 

खाट तो वहीं रहेगी पर इंसान चला जायेगा।

और ये वक़्त का पहिया है जो बस चलता जायेगा।

फिर जब नयी दीवारें, नया घर बनाएगीं,

जमीं फिर से लकीरों की चोट खायेगी।

तुम्हारा सपना भी बिखर जायेगा।

और उस खाट पे एक नया रोशनदान आएगा।

 

अभी भी वक़्त है घर की बुनियाद और रोशनदान को अपनालो।

एक दिन तुम भी रोशनदान बनोगे, ये बात खुद को समझालो।

 

अमित बृज किशोर खरे 'कसक'


अमित बृज किशोर खरे 'कसक'




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