ऐसे
कई रिश्ते हैं हमारी जिंदगी में और इन सब
रिश्तों में एक रिश्ते का
नाम है पिता, बैसे
तो ये कोई रिश्ता
नहीं ये तो हमारा
अस्तित्व है पर समझने
के लिए यहाँ रिश्ता कह देता हूँ।
बचपन
में जब हम बड़े
हो रहे होते हैं तो हमेशा यही
सुनने को मिलता कि
'आने दो पापा को'
जैसे पापा नहीं कोई हिटलर हों। मोहल्ले में जिसे देखो बही हड़का देता ' शाम को तेरे बाप को बताता हूँ',
बच्चा था तो ये
सब मन में बस
गया।
अच्छा
पापा के कभी आज
तक ऊँची आवाज में बात भी नहीं की
थी और शायद इसी
लिए वो मेरे मास्टर
पीस नहीं मिस्ट्री पीस थे। और मैंने भी
ये मिस्ट्री कभी सॉल्व करने की कोशिश भी
नहीं की।
बचपन
गुजरा, कुमार अवस्था में पंहुचा, दोस्त बने नयी दुनियां मिली, और जो छोटा
सा दायरा मेरे घर, मोहल्ले और स्कूल तक
था वो अब बढ़
गया था। जिसमे नही दोस्त, सहर की चकाचौंध आगयी
थी। और
धीरे धीरे इन उधर के
रिश्तों ने घर का
आँगन छोटा कर दिया था।
पर मेरे और पापा के
बीच बही मिस्ट्री रिलेशन जारी था। न उन्होंने कोशिश
की और ना मैंने
हिम्मत। हम दोनों को
ही शायद डर था। मुझे डांट का और उन्हें
इज्जत का। क्योकि मेरे पैरों में उनकी चप्पल जो आने लगी
थी।
मेरे
घर की माली हालत
ठीक नहीं थी, पर मुझे MBA करना
था, तो पापा ने
मुझे वो भी कराया
और इसके लिए पैसों की व्यवस्था कैसे
हुए, वो तो कोई
नहीं जनता। बही मिस्ट्री मैन की थिओरी।
MBA ख़तम
हुआ और प्लेसमेंट की
कवायत सुरु सुई। सपने
आसमान में थे, ऐसी केबिन, पर्सनल सेक्रेटरी, गाड़ी, बंगला, मोटो सैलरी, पर भला हकीकत
में ऐसा हो होता है
क्या? पर हमें तो
लगा था ऐसा ही
होता है, हमारे दूर के चाचा के
लड़के के पास तो
ये सब कुछ था। उसने
MBA किया था 10 साल पहले।
दिल्ली
में प्लेसमेंट हुआ, तीन दिन फील्ड जूते चटकाकर, नौकरी छोड़ दी और घर बापस आगया। सपनों
का वास्तविकता से मेल जो नहीं हुआ था।
मुझे
तब पता नहीं था की सपने मात्र MBA कर लेने से पूरे नहीं होते उसके लिए अपना MBA घिसना
पड़ता है।
दो
महीने ठोकरें खायीं। ऑफिस ऑफिस चक्कर काटे और इंटरव्यू पे इंटरव्यू दिए, तब कही जाके
अपनी औकात समझ में आयी, कि कहाँ हूँ, कहाँ जाना है। क्या किया था, क्या नहीं करना चाहिए था, क्या कर
रहा हूँ और क्या कर सकता हूँ।
पहली
पारी में डक पे ऑउट हो चूका था और दूसरी पारी खेलने का हौसला अभी जूता रहा था। इस पूरे
गिरने, उठने, चलने के दरमियाँ मेरे पापा मेरे साथ तो थे पर वही मिस्ट्री मैन की तरहा।
बड़ा हो गया था तो बात तो होने लगी थी पर जब भी कोई बात पूछता तो कहते "जैसा तुम्हे
ठीक लगे बैसा करो"।
घर
के सरे कर्जे भरने, और मुझे पढ़ने में हम आर्थिक रूप से पूरा टूट चुके थे। पापा भी रिटायर
हो चुके थे और सैलरी से पेंशन पे आगये थे।
कहने का मतलब ये की हमारी पूरी तरहा से वॉट लग चुकी थी। पर मिस्ट्री मैन अभी तक मिस्ट्री ही था। पर उनकी आखों में होप दिखती थी की सब कुछ ठीक होगा।
एक
बार डक पे आउट होने के बाद मैं दुवारा अपनी करियर की पिच पे उतने का मन बनाया था और
इस बार बड़े बड़े सपने नहीं थे बस एक जिद थी की आउट नहीं होना है। रन बनाऊ या न बनाऊ बस आउट नहीं होना है।
३१
अगस्त २००७ मैं दिल्ली आने के लिए झाँसी रेलवे स्टेशन पर था, पापा छोड़ने के लिए आये
थे। पापा ने अपनी जेब से पैसे निकने और गिनना सुरु किया। सरे छोटे बड़े नोट मिलाकर कुल 900 रुपया उनकी जेब
में थे। सारे पैसे मुझे देते हुए बोले
"ये रख लो, कल 1 तारिख है पेंशन मिलेगी तो और भिजवा दूंगा। पर तुम चिंता मत करना मैं हूँ। तुम बस अपना ख्याल
रखना।
मेरी
आँखों में आंसू थे, जो बस निकले नहीं थे। जिसको
मैं मिस्ट्री मैन कहता था वो तो बिलकुल एक सीधा और सुलझा हुआ इंसान था। शायद सरलता
आज की दुनियां में सबसे बड़ी मिस्ट्री है।
पिता
और हमारे बीच का रिश्ता चाहे ख़ामोशी का हो, विवाद का हो, अच्छाई का हो या डर का हो,
उलझा हुआ हो या सुलझा हुआ हो। पर पिता सभी
रिश्तो में ऊँचा होता होता है। मिस्ट्री मैन
ही सही पर हमारी जिंदगी की सारी मिस्ट्रीस, पहेलियाँ बही सुलझाता है।
अमित
बृज किशोर खरे "कसक"
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