Thursday, March 25, 2021

अखबार में एक खबर

 


कल अखबार में एक खबर पढ़ रहा था,

और जाने क्यों अपने आप से लड़ रहा था।

समाचार बहुत मार्मिक था,

पर तो जात-पात का था, ही धार्मिक था।

 

एक कोने में एक छोटी सी खबर छपी थी,

उसे पढ़कर मेरी आत्मा जाने क्यों रो पड़ी थी।

एक बच्ची मिली थी किसी को कूड़ेदान में,

तो कहीं एक लड़की का ठंडा बदन मिला था, एक खंडहर से मकान में।

 

किसी घर में अरमानों की आत्महत्या हुई थी,

तो किसी ने गाढ दी जिन्दा, जो उसके घर बच्ची हुई थी।

किसी ने ना कहा, तो उसे जलता शैलाव मिला था,

तो किसीने पहले हाँ कहा तो बेहया का ख़िताब मिला था।

 

किसी के कांधे पे हमने कुछ लाल से निशान देखे थे,

तो किसी के ना चाहते हुए भी उसके सौदे तमाम देखे थे।

कोई घुट घुट के मर रहा था, तो कोई मर मर के जी रहा था,

और मेरे जैसा एक सो कॉल्ड सरीफ़ आदमी, अखवार के साथ चाय के मजे ले रहा था।

 

मेरे सो कॉल्ड सरीफ़ होने की भी एक मर्यादा है,

क्योकि मुझमे इंसान आधा और शैतान आधा है।

दूसरे के साथ हो तो खबर है, अखवार है,

और अपने साथ हो तो इंसानियत पर वार है।

 

ये दोहरे मापदंड हमहीं ने बनाये हैं,

तभी तो पत्थर को पूजा है और नारी को बिसराये हैं।

तभी तो हम मेट्रो के पहले डिब्बे को मालगाड़ी बोलते हैं,

और अपनी बहन को घर की इज्जत, राजदुलारी बोलते हैं।

 

चलो अब अखवार के बाहर, खुद को पढ़ लें,

जो अंदर शैतान है, उससे थोड़ा लड़ लें।

मापदंडों को फिर से लिखने की जरूरत है,

क्योंकि इंसानियत को नारी की जरूरत है।

 

वो प्रकृति है, वो सारा संसार है,

वो सब कुछ है हमारा आधार है।

वो रचना हो, वो रचयिता है, वो गागर है वो सागर है,

वो अविरल है, अविनाशी है, वो कावा है और बही काशी है।

 

अमित बृज किशोर खरे

"कसक"



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