मैं
एक नौसिखिया व्यापारी जो अपनी खून
पसीने से जमा की
गयी कुछ थोड़ी बहुत रकम के सुरु की
गई एक छोटी सी
कंपनी को अपने 24 घंटे
को 48 घंटे बनाकर बहुत प्यार से पाल पोस
के बड़ा करने में लगा था। जैसे एक बाप अपने
बच्चे को पालता है
और हर पल उसको
बड़ा होते देखता है। हालाँकि मैं अभी मुकम्मल बाप नहीं बना था, हाँ पर आहट हो
चुकी थी। मेरी पत्नी पेट से थी। मेरे
दामन में जैसे खुशियाँ चारों तरफ से आरही थी
की मानों सारे ज़माने कि खुशियों को
किसी ने मेरे घर
का पता दे दिया हो।
एक तरफ मैं बाप बनने वाला था और दूसरी
तरफ बड़ी मसक्कत के बाद उत्तर
प्रदेश सरकार का एक बड़ा
प्रोजेक्ट मेरी कंपनी को मिल गया
था।
सपने
बड़े अजीब होते हैं जैसे ही एक सपना
पूरा होता हैं या टूटता है
दूसरा उसी वक़्त आपकी आँखों में आजाता हैं। लेकिन शर्त बस एक ही
होती है कि आपकी
आखें खुली होनी चाहिए। मैंने जिंदगी में बहुत सारे सपनों को सच होते
देखा है और उनसे
कई ज्यादा सपनों को टूटते भी।
तो कभी अगर कोई सपना सच हुआ तो
खुद पे अहम् नहीं
किया और जब कोई
सपना टूटा तो खुद के
ऊपर से कभी बिस्वास
नहीं खोया। क्योंकि मेरे लिए सपनों के टूटने और
सच होने का जो शिलशिला
ही जिंदगी जीने का फलसफा है।
मैं
अपने प्रोजेक्ट के शिलशिले में
अक्सर दिल्ली से बाहर रहता
और मेरी पत्नी दिल्ली में। जिस वक़्त मेरी पत्नी को और मेरे
होने वाले बच्चे को मेरी सबसे
ज्यादा जरूरत थी मैं उनके
पास नहीं था और 500 किलोमीटर
दूर झाँसी में रहता क्योकि प्रोजेक्ट लोकेशन वही थी।
उत्तर
प्रदेश सरकार ने एक कृषि
बाजार बनाया था जिसको सही
ढंग से चलाने के
लिए मेरी कंपनी को प्रोजेक्ट मिला
था। हम अपना सेटअप
बहा बना रहे थे पर मुझे
एक ऐसे इंसान की तलाश थी
जो वहां रहकर इस प्रोजेक्ट की
बागडोर संभाले। मेरा एक दोस्त जो
झाँसी का ही रहने
वाला था और पंजाब
में किसी और कंपनी के
साथ जुड़ा था, वो बापिस झाँसी
आना चाहता था, अब अपने घर
कौन नहीं आना चाहता। चुकी मेरा दोस्त था, मैं उसे जनता था तो मैंने
उसे ये जॉब ऑफर
कर दी।
किसी
तरह सरकार की साईकिल की
सवारी करने का मौका मिला
और प्रोजेक्ट सुरु हो गया। पर
साईकिल की सीट में
कांटे बहुत थे। उन काँटों में
कुछ कांटें अधिकारी थे जो सिर्फ
उसी फाइल को उठाते है
जो भारी होती है। राजनितिक लोग जिनको अपना उल्लू सीधा करना होता है और कुछ
अपने खास लोग जिनपर आप आँख मूँद
कर भरोसा करते हैं, अभी किसी ने ठीक ही
कहा है न कि
जो भरोसे वाले होते हैं बही डैस वाले होते हैं।
प्रोजेक्ट
सुरु हुए तीन महीने से ज्यादा हो
गए थे पर अभी
तक पेमेंट जो सरकार की
तरफ से आनी थी
नहीं आयी। देन दारी बढ़ती जा रही थी
बार बार तकादा किया पर कुछ नहीं
हुआ करीब 50 लाख की पेमेंट सरकार
के पास फसी हुई थी। और दूसरी तरफ
लेनदार घर तक आचुके
थे। फिर एक चिट्ठी मिली
जिसमे लिखा था कि काम
में गड़बड़ियों के कारण आपका
प्रोजेक्ट रद्द किया जाता है और आपको
अब कोई भुगतान नहीं किया जायेगा। सरकार ये प्रोजेक्ट एक
दूसरी कंपनी को दे रही
है। और पता है
वो दूसरी कंपनी कौन सी थी। उसी
दोस्त की जिसको मैंने
अपने प्रोजेक्ट के लिए हायर
किया था।
पैरो
के नीचे से जमीन खिसक
गयी करीब 35 लाख का कर्जा था,
कितना भी करता कर्जा
नहीं उतरता। मैंने अपना सब कुछ बेच
दिया और कर्जा उतरा
सिर्फ कुछ पैसे बचाये थे जो बच्चे
की जन्म के वक़्त काम
आने थे। एक बार फिर
से एक सपना टूटा
था, पर इस बार
टीस बहुत गहरी थी। सब कुछ ख़तम
हो गया था और मैं
भी अपने आप को ख़तम
करने वाला था। सारी त्यारी कर ली थी
कि बस एक बार
अपने बच्चे का मुँह देख
लूँ फिर सबसे रुखसत कर लूंगा। एक
हारा हुआ इंसान दुनियां को सिर्फ निराशा
ही दे सकता है
कोई आशा नहीं। आखिरकार वो दिन भी
आया जब मेरे बच्चे
ने इस दुनियां में
पहली साँस ली और अब
वक़्त था कि मैं
अपनी आखिरी सांसे लूँ, और सारी बची
कूची सांसे अपने बच्चे को देकर उससे
अलविदा कह दूँ।
जब
पहली बार उसे देखा तो लगा की
मई पूरा हो गया। जितना
उसे चूम सकता था चूमा, उसे
आलिंगन किया, उससे एक तरफ़ा कई
बाते कि, बहुत कुछ बाकी था उससे कहने
को, कि क्या करना
क्या नहीं। अपनी जिंदगी का सारा निचोड़
उसे उसी वक़्त देना चाहता था जो एक
बाप साडी जिंदगी देता है। पूरा दिन उसके साथ बिताया, और पूरी जिंदगी
जी लिया। अब अलविदा कहने
का वक़्त था उसे पत्नी
के बगल में लिटा दिया और जाने को
हुआ तो ऐसा लगा
किसी ने मुझे पीछे
से पकड़ लिया है। मुड़कर
देखा तो मेरे बेटे
ने मेरे कुर्ते का एक कोना
पकड़ा था और बहुत
जोर से पकड़ा था,
जैसे कह रहा हो
की मत जाओ, उसे
मुझे घोडा बनाना है, मेरे कन्धों पे बैठकर बाजार
घूमना हैं और कह रहा
था की अपने पहले
कृस के बारे में
भी तो मुझको बताना
है और भी बहुत
कुछ। पर मैंने एक
न सुनी और धीरे से
उसकी हथेली से कुर्ते के
छुड़ाया और आगे बढ़ने
लगा। फिर अचानक मुझे ख्याल आया की मैं कितनी
आसानी से मैं इस
मजबूत बंधन से बहार आगया
तो क्या जो बंधन मेरे
लिए मायने नहीं रखते उनको तो तोड़ ही
सकता हूँ। बंधन नाकामी के, बंधन निराशा के, बंधन हार के, बंधन समाज के।
बस
फिर क्या था वापस पीछे
मुड़ा अपने बेटे को अपनी गोद
में फिर पे उठाया और
बाकी सारे बंधन तोड़ दिए। उसने फिर से मेरे कुर्ते
का एक कोना पकड़
किया था और इस
बार इसने दिलासा दिया कि कुछ सपने
टूटने के लिए ही
होते है ताकि हम
नए सपने देख सकें। और मेरा नया
सपना मेरी गोद में मुस्कुरा रहा था।
तो
दोस्तों कभी अगर कोई सपना लुटे, तो दूसरा देखना, दूसरा टूटे तो तीसरा देखना, बस सपने
देखना। कुछ सपने टूटने के लिए ही होते हैं जो खुद टूट कर हमें जिंदगी का फलसफा सिखाते
है। और कुछ सपने आपको जिंदगी जीना सिखाते हैं।
अमित बृज किशोर खरे 'कसक'
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