Sunday, December 25, 2016

हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !


हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

खो गए हैं वो साईकिल के चक्के,
गुम गए वो सिनेमा जो करते थे हक्के बक्के
कागज की नाव अब नहीं मिलती
आँगन में कली अब नहीं खिलती

कहाँ गई वो स्कूल की टाट फट्टी
अब कौन खेलता है कट्टी बट्टी
खो गए बचपन के सभी सपने
रूठ गए संगी साथी, छूट गए अपने

पड़ोस की दादी अब कहानी क्यों नहीं कहती
क्यों छतों पर अब अन्ताक्छरी नहीं बहती
अब पड़ोसी की छत भी वीरान हो गयी है
हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

यूँ चुपके से बचपन कहीं खिसक गया
किताबों में रखा वो गुलाब कहीं बिखर गया
अब कौन सुनहरे कागज पे प्रेमपत्र लिखता है
और फिर कौन चुपके से उसे किताबों में रखता है

पहले प्यार का ढिंढोरा अब कौन पीटता है
और कौन पहली बारिश में ख़ुशी ख़ुशी भीगता है
अब गीली मिट्टी की वो भीनी सी खुशबू खो गई है
हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

आज कार में वो मज़ा कहाँ, जो साईकिल की कैंची में था
पिज़्ज़ा बर्गर में वो प्यार नहीं, जो चूल्हे की रोटी में था
पैसा कमालें कितना भी, माँ का आँचल अब नहीं
सब कुछ है मेरे पास, पर मेरा पिता, मेरा रब नहीं

बच्चों को देखकर फिरसे बच्चा बन्ने का मन करता है
पर ये कमबख्त वक़्त है, जो अब कहाँ ठहरता है
अब सब कुछ है पर फिर भी क्यों फरियाद है
बचपन में चुराई थी पापा की जेब से चबन्नी, याद है

वो चबन्नी कहीं खो गई है
हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !
हमारे होठों की हंसी कहीं खो गयी है !

अमित ब्रज किशोर खरे 
कसक

Saturday, October 15, 2016

Happy Birthday MAYAN


Happy Birthday MAYAN

आज कल एक अजीब सी ख़ुशी रहती है,
मुस्कुराहट मेरे होंठो पे सजी रहती है !
कल तलक जिनकीं जेबों से चिल्लर चुराता था,
आज उन्हीं आँखों में ज़ोश और खुशियाँ रमी रहतीं है !!

आज तुममें मुझे मेरा आईना दिखता है
जब तुम मेरे पास भागकर आते हो घुटनों के बल,
कभी मैं भी येसे ही लिपट जाता था पापा के पैरों में !
वो लूना की आवाज आज भी कानों में गूंजती है !!

तुममें मुझे मेरा आईना दिखता है
जो उत्पाद तुम मचाते हो घर में,
कभी मैं भी पूरे मोहल्ले का सर दर्द हुआ करता था
वो डेक की तेज आवाज आज भी मोहल्ले को याद होगी !!

तुम एक नयी उम्मीद हो हमारे लिये
अभी चलना तो नहीं सीखा तुमने पर,
पूरे घर को सर पे उठा रखा है,
और सारी दुनिया तुम्हारे कदमों में है !!

आज फिर से हम अपना बचपन जी रहे हैं,
धीमे धीमे हम कुछ सपने सीं रहे हैं !
वही सपने जो कल पापा की आँखों में थे,
आज हम उन्ही लम्हों को फिर से पी रहे हैं !!

जी करता है कि फिर से बच्चा बन जाऊ !
पापा की गोद में बैठूं, और फिर से चिल्लर चुराऊं !!

जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं

अमित बी. के. खरे “कसक”


Monday, October 10, 2016

एक दीप और जलातें हैं....


एक दीप और जलातें हैं....

खुशियों का एक दीप,
सपनों का एक दीप !
एक दीप रंगों का,
एक दीप उमंगों का !

एक दीप और जलातें हैं......

खेत खलियानों में,
उमंगों की उड़ानों में !
झोपड़ी और मकानों में,
अनछुये अंधकारों में !

एक दीप और जलातें हैं......

रोशनी और विनोद का,
आस्था और आलोक का !
आशीषों की मधुर छांव का,
पावन सुन्दर गांव का !

एक दीप और जलातें हैं......

अन्नदाता और किसान का,
पालनहार भगवान का !
देवोमय मेहमान का,
आखिर में हर इंसान का !

एक दीप और जलातें हैं......
एक दीप और जलातें हैं......

अमित बी.के. खरे “कसक”


Sunday, August 7, 2016

फिर कभी आऊंगा !!



कुछ आपकी सुनूंगा, कुछ अपनी सुनाऊंगा,
अभी वक़्त बहुत कम है, कल फिर कभी आऊंगा !
क्या हुआ जो आज छोड़ दिया तेरा दामन,
कल फिर नयी सुबह होगी, नया सूरज होगा,

कल फिर तेरे सामने ये सडी हुई सूरत ले आऊंगा !!

अमित बृज किशोर खरे “कसक”

Monday, August 1, 2016

कल बीता सो बीता !

कल बीता सो बीता !
आज सुबह का दिनकर देखो,
फूल मनोहर मधुकर देखो,
आज लिखो तुम नयी कविता !!

कल बीता सो बीता !!

आज प्यार में तन्हाई है,
दिलों में एक लंबी खायी हैं !
प्यार बना अब एक लतीफा !!
कल बीता सो बीता !!

आज नया आगाज़ करें हम,
आयो आज कुछ खास करें हम !
आज लिखें हम एक नयी गीता !!
कल बीता सो बीता !

गए बीत कई साल दसक 
कभी एक न हम हुए 'कसक' !
अब हो जायो युग बीता !!
कल बीता सो बीता !

कल बीता सो बीता !
कल बीता सो बीता !

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"

ये मेरे अंतः के मानस मुझसे बात करो !


ये मेरे अंतः के मानस मुझसे बात करो !
मन की अंधियारी गलियों में मेरे साथ चलो !!

सूरज भी ठंडा हो जाये, मुझमें येसी अगन जलाओ,
सागर की लहरें थम जाएँ, मुझमें येसी तरंग उठाओ !
अब तक कुछ भी हुआ नहीं है, कुछ तो आज करो !!

ये मेरे अंतः के मानस मुझसे बात करो !

देख लिया मैंने कुछ शायद, और कुछ शायद देख न पाया,
मन की अनंत गहराई में, खोजकर तुझको खोज न पाया !
भौतिकता के अंधियारों में प्रकाश अनुनाद करो !!

ये मेरे अंतः के मानस मुझसे बात करो !

सब तो कहते मन ही सब कुछ, मैं कहता कुछ और कहो, 
आप तो मन के वस् में हैं, 'कसक' तभी मन वस् में कर लो !
मन के द्वार बंद कर दो, साक्षीभाव से काम करो 

ये मेरे अंतः के मानस मुझसे बात करो ! 
मन की अंधियारी गलियों में मेरे साथ चलो !!

अमित बृज किशोर खरे "कसक"

Monday, May 30, 2016

ये फिर जी उठेंगें……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!


सुन्दर, मनमोहक, अति पावन है ये धरा !
देवों का घर है, और पुरखों का आसरा !!

मिट्टी में सोना, और पानी में चांदी !
हरे भरे खेत और खुशबू वो सौंधी !!

झिलमिल सी नदियां जो बहतीं हैँ झरझर !
खुशियों की खुशबु जो रहती है हर पल !!

ये फिर जी उठेंगें……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!

सपनों को साकार किया, इन मजबूत इरादों नें !
कुछ करने का हुनर जो था, खुद से किये उन वादों में !!

एक रह हमने चुनी, और कारवां बनता गया !
बस रंग हमने भरे और आसमां बनता गया !!

वो फिर जी उठेंगे……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!

जब सोना उगे खेत में, तो क्या रक्खा है रेत में !
हम क्यों एक कि बात करें, जब गिनती है अनेक में !!

धान, चना, बाजरा, मक्का, हम भी करें जो करते कक्का !
सबकी भूंख मिटायें हम, और करें मुनाफा अपना पक्का !!

खेत फिर खिल उठेंगें……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!

एक नयी भोर होगी, खुशियों की डोर होगी !
बेटी होगी बाप का कन्धा खुशियां चहुँ-ओर होगीं !!

कदम मिलकर साथ चलेगी, मंजिल अपनी पाकर रहेगी !
डिडेगी, डरेगी, होगी कमजोर, सपनों को साकार करेगी !!

बेटी होगी रौनक घर कीरौशन सारा घरबार करेगी !
आसमान में पंछी जैसा खुशियों का इजहार करेगी !!

वो फिर जी उठेंगी……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!

बरसेंगे उज्यारे सावन !
रौशन होगा हर घर आँगन !!
स्वाभिमान के साथ जियेंगे !
शान से घर रौशन कर देंगें !!

वो फिर जी उठेंगे……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!
वो फिर जी उठेंगे……….. हम फिर जी उठेंगें………….!!!!

 

अमित बृज किशोर खरे

"कसक"

Tuesday, May 3, 2016

मैं कितना गिर चूका हूँ,


मैं कितना गिर चूका हूँ,
और गिरके बिखर चूका हूँ !

मैं कितना गिर चूका हूँ 
मैं कितना गिर चूका हूँ

न हिम्मत, न ज़ज़्बा, न उठने का शलीखा,
मैं तो अब गुज़र चूका हूँ। ..

मैं कितना गिर चूका हूँ 
मैं कितना गिर चूका हूँ

अम्बर में काले बादल, और दिल की ज़मीं है बंजर,
मैं पूरा उजड़ चूका हूँ !

मैं कितना गिर चूका हूँ 
मैं कितना गिर चूका हूँ

अमित बृज किशोर खरे 
"कसक"

Wednesday, January 6, 2016

मैं भी ना रहूँ, तू भी ना रहे |



ये सज़र ना रहे ,
ये गुज़र ना रहे |
ना जलता हुआ दिन रहे,
ना बुझती हुयी शाम रहे ||

मैं भी ना रहूँ, तू भी ना रहे,
जो भी कुछ रहे, दरमियाँ रहे ||

कोई रंजिश ना हो,
कोई बंदिश ना हो |
कोई इकरार ना हो,
कोई इंतज़ार ना हो ||
मैं भी ना रहूँ, तू भी ना रहे,
जो भी कुछ रहे, दरमियाँ रहे ॥

ये नज़र का सफ़र,
चलता रहे उम्र भर |
तेरे मेरे बीच में,
प्यार कि हो हर लहर ||
मैं भी ना रहूँ, तू भी ना रहे,
जो भी कुछ रहे, दरमियाँ रहे ॥

अमित बृज किशोर खरे "कसक"