Wednesday, December 30, 2020

दिल का हाल हम रखतें हैं

 


तुकबंदी नहीं आती, दिल का हाल हम रखतें हैं,

तुम्हारे पास जिसका जबाब नहीं येसे सवाल हम रखतें हैं। 

मैं क्या सुनाऊँ अपना हाल, तुम अपनी कहो,

शायर हूँ जनाब, जो तुझे छुये वो ख़याल हम रखतें हैं।। 


मेरी मुस्कुराहटें तेरी, और तेरी आँखों का पानी हम रखतें हैं,

चलो ऐसा करो तुम जख्म दो मुझे,

और तुम्हारी चोटों पे मरहम हम रखतें हैं।।


तुम मौका-परस्ती का पैमाना, और एहतराम हम रखतें हैं,

कितनो ने तोड़े हैं तेरी बगिया से फूल,

तूं गिनती कर, उसका हिसाब हम रखतें हैं।।


क्या बेवफाई की टकसाल खोल रक्खी है, जो रोज नया रकीब मिलता है,

किससे कब कहाँ और कैसे शौंक पूरे हुए तेरे,

उस हर एक किस्से की खबर हम रखतें हैं।।


अब तो मन भर गया होगा तेरा, जिस्म की भूख से,

अब भी वक़्त है यही रुक जा कसक,

अब भी तेरे साथ चलने का जिगर हम रखतें हैं।।


अमित बृज किशोर खरे "कसक"



कभी जमीं तो कभी आसमां मांगते हो


कभी जमीं तो कभी आसमां मांगते हो, 

अपनी एक हंसी के बदले सारा जहाँ मांगते हो।

अब जब रकीब ने छोड़ दिया बेसहारा तुमको,

अब कहीं जाके तुम हमसे पनाह मांगते हो।। 


सब कुछ तो ले गए थे तुम हिसाब किताब करके,

अब इस वीरान घर में कुछ ना बचा, 

बड़े बेशर्म हो यार अब हमारा ईमां मांगते हो। 


अच्छा एक बात बताओ 

किस दाम में बेची थी मुहब्बत मेरी,

बड़े बेगैरत हो यार, हारने का इनाम मांगते हो। 


अच्छा वो जो नाम लिखवाया था मेरा, गले के नीचे 

उसे कैसे हटवाया था,

अब जब लौटे हो तो उस नाम के निशान मांगते हो। 


दुनिया देख रही है तुम्हारी बेशर्मी का मेला,

अब और शोर न कर,

जरा आईना देख, किन - किन से, कब और कहाँ मांगते हो। 


क्या तेरी आँखों का पानी मर गया है,

जो दुवारा आँखे मिला रहे हो,

यहाँ तेरा कुछ न बचा, क्यों फ़ना मांगते हो। 


अच्छा आही गए हो, तो थोड़ा रुको, आराम करो,

अपनी जुबां को धार दो, और कहो  

अब मुझसे किस रकीब का पता मांगते हो। 


तेरी खट्टी मीठी बातों से कसक का वास्ता नहीं, 

चल परे हट और रास्ता दे,

क्यों बेफिजूल के जख्मों की हमसे दवा मांगते हो।  


अमित बृज किशोर खरे "कसक"



Saturday, December 12, 2020

चलो एक कहानी सुनाता हूँ। By Amit BK Khare "Kasak"


चलो एक कहानी सुनाता हूँ। 

तुम्हारे अल्फ़ाज़ अपनी ज़ुबानी सुनाता हूँ।।

दास्तानों की किताब ले रखी है मैंने,

होंठों की हंसी, आँखों का पानी सुनाता हूँ।।


चलो एक कहानी सुनाता हूँ। 


जब तेरा हाँथ मैंने इन हांथों में लिया था,

आँखों ने आँखों से एक वादा कर लिया था। 

सांसे एक हो गईं थीं, जुवां लड़खड़ाई थी,

कुछ इस तरहा तूँ मुझमे समाई थी।

दूरियां मिट गईं थीं, बिस्तर सिमट गए थे,

जब मदहोश होकर तुम हमसे लिपट गये थे। 


उस मिलन की एक निशानी सुनाता हूँ,

एक रिश्ता रूहानी सुनाता हूँ। 

एक दीवाना एक दीवानी सुनाता हूँ। 

चलो एक कहानी सुनाता हूँ। 


चलो एक कहानी सुनाता हूँ।।


हौले हौले मौसम बदल रहे थे,

हम अनकहे जज्बातों में बह रहे थे।

सुबह मदहोश और शाम रंगीन थी,

आसमा नीला और फूलों की जमीन थी। 

तुम ठहरे थे, हम चल रहे थे,

फर्क सिर्फ इतना था, हम डूब रहे थे तुम उबर रहे थे। 


अब उस रिश्ते की बेमानी सुनाता हूँ। 

लफ्जों में ठहरी हैरानी सुनाता हूँ। 

मुहब्बत की होती नीलामी सुनाता हूँ 

चलो एक कहानी सुनाता हूँ। 


चलो एक कहानी सुनाता हूँ।।


 तुम किसी और की बाँहों में खो चुकी थी,

तुम हमनवां किसी और की हो चुकी थी। 

भुला दिए थे सारे वादे, तोड़ दी थीं कसमें,

ना निभाये रिश्ते, ना निभाईं रसमें। 

उस दिन तूने मेरे जमीर को कुछ इस तरहा खरोंचा था,

कि मेरे ही खंजर से मुझे, ना जाने कितनी बार नोचा था। 


उस बहते हुए लहू की रवानी सुनाता हूँ। 

तेरी हसरतों की सुनामी सुनाता हूँ। 

तूने की जो मेहवानी सुनाता हूँ। 

चलो एक कहानी सुनाता हूँ। 


चलो एक कहानी सुनाता हूँ।।


आहिस्ता आहिस्ता ये दरिया ठहर रहा था,

और तुम्हारे दिए ज़ख़्मों से मैं मर रहा था। 

तभी किसी ने हाथ पकड़ा और डूबने बचा लिया,

जीने का वास्ता देकर, अंधेरो को हटा दिया।  

खूबियों को जाना, कमियों को नजरअंदाज किया,

उसने टूट कर चाहा मुझे, हर वक़्त मेरा साथ दिया। 


नई दास्ताँ सुहानी सुनाता हूँ। 

नया रिश्ता नूरानी सुनाता हूँ। 

उस रिश्ते की अगवानी सुनाता हूँ। 

चलो एक कहानी सुनाता हूँ।। 


होंठों की हंसी, आँखों का पानी सुनाता हूँ।।

चलो एक कहानी सुनाता हूँ।।



Saturday, October 31, 2020

मुझे क्या ? By Amit BK Khare 'Kasak'



सूरज डूबता है तो डूब जाये, मुझे क्या ?
कोई रूठता है तो रूठ जाये, मुझे क्या ?

ये तो हाथों की लकीरों का मलाल है साहब,
कोई छूटता है तो छूट जाये, मुझे क्या ?

लालसाओं की दौड़ है यहाँ कोई सच्चा नहीं,
कौन हारा और कौन जीता, मुझे क्या ?

जो उसने चाहा मैंने सब दिया उसे,
अब वो जाती है तो चली जाये, मुझे क्या ?  

हमाम में सब नंगे हैं, क्या तेरी, क्या मेरी
सरकार गिरती है तो गिर जाये, मुझे क्या ?

गलियां सुनसान, रातें वीरान, सारा सन्नाटा है,
कौन मरा और किसने मारा, मुझे क्या ?

मैं तुझे भुला चूका हूँ एक अरसा पहले,
अब तूं इधर आये या भाड़ में जाये, मुझे क्या ?

बस ये तबस्सुम का फरेब है और कुछ नहीं,
अब तेरे होंठ सिलते हैं तो सिल जाएं, मुझे क्या ?

सुंबुल उसका इश्क़ हैं या कमबख्त वो,
अब अरमान बिखरते हैं तो बिखर जाएं, मुझे क्या?

गठरी बांध रखी है ख्वाहिशों की मैंने अब,
किसी की दुनियां उजडती है तो उजड़ जाये, मुझे क्या?

चुप्पी बहुत हुई, अब तांडव होगा,
तेरे आंसू गिरते हैं तो गिर जाएं, मुझे क्या ?

बहुत भर लीं सिसकियाँ अँधेरे में, अब बोलूंगा,
वो बदमान होती है तो हो जाये, मुझे क्या?

कोसों दूर निकल चुके हैं हम उसकी पहुंच से अब,
वो किसी और की होती है तो हो जाये, मुझे क्या? 

तूं गैर है, कसक को अब तेरी आरजू नहीं ,
तूं ठहरती है तो ठहर जाये, मुझे क्या?

अमित बीके खरे 
"कसक"


Saturday, May 9, 2020

वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।।



कभी सूखती है धुप में,
तो कभी सर्दी में ठिठुर जाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

अनंत दर्द से गुजरती है,
और हंस के हमें दुनियां में लाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।  

खुद गीले में सोती है,
हमें सूखे बिस्तर में सुलाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

कभी वो बाबर्ची बनती है,
तो कभी गुरु बनके हमें पढ़ाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

हमारी हर फिजूल की बात 
वो ना चाहते हुए भी प्यार से सुन जाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

हमें अगर चोट लग जाये तो वो सहम जाती है 
हम से ज्यादा वो आसूं बहाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

हम गिरें तो ढाढस 
और उठें तो होंसला बढाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

खुद की खुशियाँ कहाँ उसकी 
हमारी खुशियों में ही खुश हो जाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

ना दिन देखती है न रात,
बिना रुके बस चलती जाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

हमारे लिए ही जीती है 
हमारे लिए ही मर जाती है। 
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है। 

वो माँ ही है जो इंसान बनाती है। 
वो माँ ही है जो भगवान बनती है। 
वो माँ ही है जो सारा संसार बनाती है। 

अमित बृज किशोर खरे 
"कसक"



Wednesday, April 15, 2020

जरूरत क्या है।।

जिंदगी में पहचान कि जरूरत क्या है,
रिश्तों में अहसान कि जरूरत क्या है।
जरुरत क्या है मिटने की उसकी मुस्कान पे,
उस बेवफ़ा मेहमान की जरुरत क्या है।।

सुबह और शाम की जरुरत क्या है ,
बेहोशी और जाम की जरुरत क्या है।
क्यों फसे हो यार दुनियादारी के झमेलों में,
यूं बेवजह काम की जरूरत क्या है।।

बेबसी और लाचारी की जरुरत क्या है,
इश्क़ के व्यापारी की जरुरत क्या है।
क्या जरूरत है अब सांसों के चलने की,
मर तो रहा हूं, बीमारी की जरुरत क्या है।।

कच्चे पक्के मकानों की जरुरत क्या है,
ऊंचे नीचे कारखानों की जरूरत क्या है।
सब कुछ तो है अरे किस बात की कमी है,
बस कपटी, धूर्त इंसानों की जरुरत क्या है।।

अभिव्यक्ति की आजादी की जरूरत क्या है,
और ज्यादा बर्बादी की जरूरत क्या है।
दुनियां कितनी सुन्दर और सम्पूर्ण है हमारे बिना,
इस बढ़ती हुई आबादी की जरूरत क्या है।।

क्या जरूरत है मिलने और बिछड़ने की,
बेवजह आपस में लड़ने की जरूरत क्या है,
उसका दिया सब कुछ है हमारे पास,
हिन्दू मुस्लिम करने की जरूरत क्या है।।

रिश्ते नाते, सगे संबंधी, अपने पराये, भाई बंधी,
सब को युं बिसराने की जरूरत क्या है।
क्या जरूरत है, ये सोचने की भी अब जरूरत नहीं,
खुद को यूं बहकाने की जरूरत क्या है।।

जो कुछ लम्हे भुला दिए थे, वक़्त के थपेड़ो ने,
उनको जियो, और उधार की जरूरत क्या है।
मिट्टी के घड़े भर के रखो आंगन में, काम आएगें,
किसी और औजार है जरूरत क्या है।।

क्या रखा है खानाबदोश जिंदगी जीने में,
कहीं तो रुको, यूं चलने कि जरूरत क्या है।
क्या जरूरत है मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे की,
"कसक"अब और जलने की जरूरत क्या है।।

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"

Monday, March 2, 2020

मै यूपी का छोरा, वो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।


वो दिल के पास थीपर नज़रों से बहुत दूर थी 
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

ख्यालात अलगजज्वात अलगवो दूरी की मुलाकात अलग,
बिन देखीबिन समझीहम दोनों में मुहब्बत भरपूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

वो फर्राटे की अंग्रेजी थी, मेरी भाषा बुन्देली थी,
मैं बेढंगी सा रांझा थावो स्वर्ग से उतरी हूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

वो सुबहा की गर्म चाय थीलालिमा चहरे पे लगाए थी,
वो कातिल थीरहनुमा थीवो नूर थी और मेरा गुरूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

मैं बिखरा हुआ सा बिस्तर थावो सिमटी हुई रजाई थी,
मैं टूटा हुआ सा मनका थावो रोली और कपूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

वो दिन थीवो रात थीसावन की पहली बरसात थी,
वो दरिया थीवो नाव थीसनक थी और सुरूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

वो पूजा थीआस्था थीवो प्यार की पराकाष्ठा थी
वो कोमल थीकठोर थीवो पास थी और दूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।।

मैं अमावस का अंधेरावो पूनम का चांद थी,
मैं महादेव की सेना सावो अनिका का रूप थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।

वो राज थीवो साज थीवो सुबह का आगाज़ थी,
में बुझता हुआ सा दीपक थावो खिलता हुआ सा नूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।

वो बड़ौदा की अंगड़ाई थीजिसमें पूरी सुबह समाई थी,
मैं दिल्ली का गिरता पारा थापर उसकी कसक जरूर थी।
मै यूपी का छोरावो पंजाबी अनुभा कपूर थी।

अमित बीके खरे
"कसक"

किसी के होने से, किसी का ना होना ही अच्छा है,

किसी के होने सेकिसी का ना होना ही अच्छा है,
झूठ की मुस्कुराहट सेचुपके में रोना ही अच्छा है।

तुम रहो खुश गैरों की महफ़िल सजाने में,
गुमनाम हैपर मेरा गम का एक कोना ही अच्छा है।।

उसने जला दिए मेरे खतजो लिखे थे चाहत की स्याही से,
चलो एक कर्ज तो उतराअब चैन से सोना ही अच्छा है।

तेरी वो गुस्ताखियां जो सर-आंखों पे रखी थीअब उतार दी मैंने,
बोझ ढोकर चलने सेयहीं पर रुक जाना ही अच्छा है।

तेरे जाने के बादतेरी मुहब्बत ने भी अलविदा कह दिया,
इस खाली दिल का अब लुट जाना ही अच्छा है।

तुमने तो कहा थाएक मुकम्मल जहां बनायेगे साथ मिलके,
पर चलो मुकम्मल तुम सहीमेरा अधूरा तराना ही अच्छा है।

वो शाम जो गुजरती थी मध्यम सी रोशनी में तेरे साथ,
उस सिसकती शाम का हौले हौले बुझ जाना ही अच्छा है।

वो चंद रातें जो गुजारी थी हमनेहाथों में हाथ लिए,
उन हाथों की लकीरों का अब मिट जाना ही अच्छा है।

जहां हम मिले थे पहली बारउस छोटे से घरोंदे मै,
उस जर्जर इमारत का अब बिखर जाना ही अच्छा है।

ना तुम बदल पाएना हम बदल पाएइस अनबुझे से रिश्ते में,
और क्या बदलेंइस रिश्ते का अब बदल जाना ही अच्छा है।

खुश रहे तुंजहां भी रहेमेरा क्या,
"कसक" का अब तो गुजर जाना ही अच्छा है।

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"