किसी के होने से, किसी का ना होना ही अच्छा है,
झूठ की मुस्कुराहट से, चुपके में रोना ही अच्छा है।
तुम रहो खुश गैरों की महफ़िल सजाने में,
गुमनाम है, पर मेरा गम का एक कोना ही अच्छा है।।
उसने जला दिए मेरे खत, जो लिखे थे चाहत की स्याही से,
चलो एक कर्ज तो उतरा, अब चैन से सोना ही अच्छा है।
तेरी वो गुस्ताखियां जो सर-आंखों पे रखी थी, अब उतार दी मैंने,
बोझ ढोकर चलने से, यहीं पर रुक जाना ही अच्छा है।
तेरे जाने के बाद, तेरी मुहब्बत ने भी अलविदा कह दिया,
इस खाली दिल का अब लुट जाना ही अच्छा है।
तुमने तो कहा था, एक मुकम्मल जहां बनायेगे साथ मिलके,
पर चलो मुकम्मल तुम सही, मेरा अधूरा तराना ही अच्छा है।
वो शाम जो गुजरती थी मध्यम सी रोशनी में तेरे साथ,
उस सिसकती शाम का हौले हौले बुझ जाना ही अच्छा है।
वो चंद रातें जो गुजारी थी हमने, हाथों में हाथ लिए,
उन हाथों की लकीरों का अब मिट जाना ही अच्छा है।
जहां हम मिले थे पहली बार, उस छोटे से घरोंदे मै,
उस जर्जर इमारत का अब बिखर जाना ही अच्छा है।
ना तुम बदल पाए, ना हम बदल पाए, इस अनबुझे से रिश्ते में,
और क्या बदलें, इस रिश्ते का अब बदल जाना ही अच्छा है।
खुश रहे तुं, जहां भी रहे, मेरा क्या,
"कसक" का अब तो गुजर जाना ही अच्छा है।
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
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