कभी जमीं तो कभी आसमां मांगते हो,
अपनी एक हंसी के बदले सारा जहाँ मांगते हो।
अब जब रकीब ने छोड़ दिया बेसहारा तुमको,
अब कहीं जाके तुम हमसे पनाह मांगते हो।।
सब कुछ तो ले गए थे तुम हिसाब किताब करके,
अब इस वीरान घर में कुछ ना बचा,
बड़े बेशर्म हो यार अब हमारा ईमां मांगते हो।
अच्छा एक बात बताओ
किस दाम में बेची थी मुहब्बत मेरी,
बड़े बेगैरत हो यार, हारने का इनाम मांगते हो।
अच्छा वो जो नाम लिखवाया था मेरा, गले के नीचे
उसे कैसे हटवाया था,
अब जब लौटे हो तो उस नाम के निशान मांगते हो।
दुनिया देख रही है तुम्हारी बेशर्मी का मेला,
अब और शोर न कर,
जरा आईना देख, किन - किन से, कब और कहाँ मांगते हो।
क्या तेरी आँखों का पानी मर गया है,
जो दुवारा आँखे मिला रहे हो,
यहाँ तेरा कुछ न बचा, क्यों फ़ना मांगते हो।
अच्छा आही गए हो, तो थोड़ा रुको, आराम करो,
अपनी जुबां को धार दो, और कहो
अब मुझसे किस रकीब का पता मांगते हो।
तेरी खट्टी मीठी बातों से कसक का वास्ता नहीं,
चल परे हट और रास्ता दे,
क्यों बेफिजूल के जख्मों की हमसे दवा मांगते हो।
अमित बृज किशोर खरे "कसक"
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