Thursday, June 27, 2013

मेरी कहानी (पार्ट - 5) - "जोगेश्वरी"



ठाकुर तेज बहाद्दुर सिंह गाँव कीं जानी मानी हस्तियों में एक गिने जाते थे, बहुत रौब था उनका गाँव में । यहाँ तक की कोई भी मंत्री संत्री आये उनकी चौखट पे माथा टेके बिना जाता नहीं था । बिधाता ने नाम, धन दौलत से तो धनि बनाया ही था, साथ में किस्मत से भी धनि बनाया था । जिस भी काम में हाथ डालते वो अपने आप ही हो जाता, ज्यादा सोच बिचार की आवस्यकता ना आन पड़ती थी कभी, तीन बेटों और एक बेटी के पिता भी थे । तीनो लड़कों में पिता की ही छबी दिखाई देती थी ।

बड़े लड़के भूपेश बहाद्दुर सिंह ने राजनीति विज्ञानं की सारी किताबें तो रटी ही रखी थी साथ में अपने पिता से सारे राजनीति के गुण बिरासत में भी लिए थे, और राजनीति का सारा भार इन्ही महाशय के कन्धों पर बिराजमान था । मझले सपुत्र रूपेश बहाद्दुर कानून विज्ञानं के महा पंडित थे, अपना ज्यादा से ज्यादा वक़्त अदालत मे ही बिताते थे, और बचा कुचा वक़्त भी जो घर के लिए बचता उसमे भी येसे हायो भायो के मानो किसी मुकद्दमे की पैरवी कर रहे हो । सबसे छोटा लड़का मुकेश बहाद्दुर घर में सभी का आखों का तारा था, बाप और बड़े भाइयों का प्यार उमड़ उमड़ के उसके ऊपर आया था, और उस प्यार ने आवारा और रसिक बना दिया था, उसका खौफ भी था पुरे गाँव में, "मियां जो थानेदार तो डर काहे का" किसी को कही भी धर पटकता । ये कहना अनुचित ना होगा के बड़े ठाकुर ने अपने सारे गुणों का बटवारा अपने तीनों लड़कों में चुन चुन के किया था । तीनो गाँव में बड़े दाऊ साहब, मझले दाऊ साहब और छोटे दाऊ साहब के नाम से पूजते थे ।

इन तीनों से छोटी, एक लड़की थी जोगेश्वरी जिसमें ठाकुरों जैसी कोई चीज ना थी, सोच बिलकुल अलग, बड़ों को इज्जत और छोटों को प्यार देने वाली, बोली इतनी मीठी के लोगों को शुगर के बीमारी लग जाये, पढाई लिखाई में सबसे आगे, हमेशा अव्वल आने वाली, ना ऊँच नीच की फिकर ना झूंठी शान की परवाह, बस अपने में ही मस्त, उसकी एक अलग ही दुनिया थी, जो ठाकुर पुरुषत्व से मेल ना खाती थी, पर सारे भाई उस पर जान छिड़कते थे । हल्का सा खांसी झुखाम हो जाने पर शहर का सबसे अच्छा डॉक्टर बुलवा लिया जाता था ।

वो इतनी सुन्दर थी कि जो कोई भी उसे देखता, बस चकित हो जाता, शायद इतनी बला की सुन्दर लड़की कभी देखि ना थी, अभी कुछ 16 या 18 साल की रही होगी, पर भरा पूरा शरीर था । बारहवीं पास कर चुकी थी और आगे भी पढना चाहती थी, पर ठाकुर ने उसकी शादी की रट लगा रखी थी । जैसे तैसे भाइयों का सहारा ले कर बाप को समझाया, और आगे की पढाई करने के लिए शहर जाने को राजी कर लिया ।

कला और शाहित्य में बिशेष रूचि थी तो स्नातक उसी बिषय से करने कि ठान ली, शहर के सबसे बड़े कॉलेज में दाखिला ले लिया । सुरुवात कुछ अच्छी नहीं गुजरी, उससे भी कहीं ज्यादा अच्छे लड़के लड़कियां बहाँ थे, मैं ये तो नहीं कहूँगा के वे सब संसकारी या पढ़ने में तेज थे पर हाँ, मधुर भाषी और रहन शहन में अच्छे थे । अंग्रेजी तो जुवान पे येसी बसी थी जैसे कोई ढूध पीता बच्चा माँ से "बू बू" कहके ढूध मांगता हो । जोगेश्वरी बड़ी ही अशहज महसूश करती, और क्लास के एक कौने में बैठी रहती, किसी से कुछ ना बोलती बस किताबों में मुह घुसाए रहती, जैसे कोई चोर कोई चोरी करके छुपे जा रहा हो । उसे हर घडी यही डर रहता के अगर उसने मुह खोला तो लोग उसके हिंदी भाषी होने पे उसका मजाक बनायेंगे । अरे कोई उस बला सी सुन्दर लड़की को जाके बताये, कि जब वो बोलेगी तो लोगों को उसे देखने से ही फुरशत ना मिलेगी तो सुनेगा कौन के हिंदी बोली या अंग्रेजी, और अगर सुन  भी लिया तो भी कोई गम ना होगा, हिंदी तो हमारी मात्र भाषा है ।

उसी कि क्लास में एक लड़का था शिव दत्त कुमार, जिसने भली भाँती इस परिवेश को अपना लिया था, वो जोगेश्वरी के गाँव से ही था, पर गाँव में तो शायद कभी एक दूसरे के सामने आने का मौका ना मिला होगा । जोगेश्वरी ठाकुर खानदान से थी और शिव गाँव कि एक छोटी बिरादरी से ताल्लुक रखता था, हालाँकि उसके संष्कार, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, चतुरता और परिश्रम का कोई शानी ना था । उसके पिता गाँव में जूते सिलने का काम करते थे, पर बेटे के भविष्य कि लालशा और चिंता ने उन्हें इतना मेहनती बना दिया था के जूते सिलने के साथ साथ मजूरी में भी हाथ आजमा लिया करते ताकि लड़के को एक अच्छा भविष्य मिले, यही सोच कर उसे गाँव में ना रहने दिया और अपने एक लौते कलेजे के टुकडे को दूर शहर अपनी बहन के घर भेज दिया, हर महीने अपनी गाड़ी कमाई से उसे पैसे भेजते जिससे उसका निर्वाह हो सके ।

शिव जोगेश्वरी कि मदद करना चाहता था, पर डरता था कि अगर "नीच" कहकर दुत्कार दिया तो किसी को क्या मुह दिखायेगा । साम के 5 बज रहे थे, क्लास ख़तम हो चुकी थी, सभी लोग धीरे धीरे अपने घर के लिए निकलते जा रहे थे, जोगेश्वरी अभी भी अपनी कोने वाली जगह बैठी थी, शायद बड़ी देर से आँखों में शैलाब को दबाये, पर उसके चहरे पर शिकन साफ देखी जा सकती थी, जो चाह कर भी वो छुपा ना सकी । शिव ने कुछ दुरी बनाकर पूंछा,

"क्या हुआ राजे"
जोगेश्वरी ने बड़ी हैरानी भरी नज़रों से शिव को देखा, उसने इन 3 महीनों में पहली बार अनजानों भरे इस शरह में किसी से वो नाम सुना था जो उसकी कोठी में हर वक़्त गूंजता रहता था, कभी ठाकुर साहब अपनी बेटी को बुलाते, तो भाइयों कि जुबान पे तो हर वक़्त यही नाम रहता, तो कभी घर के नौकर चाकर, राजे बहनजी, खसखस का शरवत बना दूँ या कहो तो नीबू कि शिकंजी । उसके नैनो में भरा शैलाब उमड़ आया, और मखमली गालों से होता हुआ जमीन को छूने ही वाला था के शिव ने हाथ बढ़ा कर उस शैलाब को मिट्टी में मिलने से बचा लिया ।

"इन आंसुयों को ऐसे जाया मत करो, इनमे बहुत आग है"
शिव के इन गगन भेदी शब्दों के आगे जोगेश्वरी का मौन एक पल के लिए और ना ढहर सका, और तीन महीनों के मूक किरदार में आज आवाज आगई । और अब यहाँ भाषा कि कोई दिवार ना थी ।

"तुम्हें कैसे पता कि मेरा नाम राजे है, क्या तुम मुझे जानते हो, कौन हो, और कहाँ से हो तुम?"
जोगेश्वरी ने एक साथ कई सारे सवाल पूंछ डाले ।

"अरे रुको रुको आराम से, एक एक करके पूंछो सब बताऊंगा में" शिव ने कहा और उसे अपने वारे में सब बता दिया ।

उस दिन से जोगेश्वरी को वो पराया शहर भी अपना लगने लगा था, होता ही यही है, किसी दूर अन्जान शहर में अगर कोई अपने गाँव का मिल जाये तो ऐसा लगता है के सारा का सारा गाँव हमारी आखों के सामने है, फिर कुछ नहीं सूझता, फिर बही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, बही छोटी छोटी गलियां, खेत-खलियान, पहाड़, नदी, वो अपने सब दोस्तों के साथ छुपा-छुपी खेलना, गेंद से टीपू को गिराना, फिर उसे बनाना, वो साईकिल के पहियों को दूर तक दौड़ाना, ऐसे बहुत से भूले बिसरे पल याद आजाते हैं हमें ।

जोगेश्वरी के लिए शिव उसके घर से आई हुई वो चिट्ठी थी, जिसमे बह अपने घर कि खुशबू लेती थी, उसकी माँ का बनाया हुआ आम का अचार  था, जिसके चटखारे वो हर वक़्त खाने के साथ लेती, उसके भाइयों कि देख-रेख थी जो हर वक़्त उसके साथ रहती, जोगेश्वरी को शिव में उसका पूरा परिवार और पूरा गाँव दिखने लगा था । और धीरे धीरे उस परिवार और उस गाँव ने एक रिश्ते का नाम ले लिया "प्यार"

जब दोनों एक साथ होते तो एसा लगता के दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया होगा । धीरे धीरे सारे कॉलेज को पता चला फिर सारे शहर को, कहते हैं "घांस और कांस अपने आप उगते हैं" किसी ने जाकर ठाकुर साहब को भी बता दिया इन दोनों के वारे में ।

फिर क्या था गाँव से राजनीती के ज्ञानी, कानून के पंडित और गुंडा-गर्दी के सरदार तीनो अगली दोपहन कॉलेज में खड़े थे, शिव कि चार पांच हड्डियाँ तोड़ी, सर भी फोड़ दिया, यहाँ तक कि उसे बही कॉलेज में अधमरा छोड़कर जोगेश्वरी को अपने साथ गाँव ले गये, कुल की मरियादा का ठेका जो ले रखा था एन तीनों ठाकुरों ने ।

जोगेश्वरी अब सबकी नज़रों में चढ़ चुकी थी, उसकी भाबियाँ, जिनकी कल तक उससे ऊँची आवाज में बात करने की भी हिम्मत ना हुआ करती थी आज उसे हर बात पर ताने मारने लगीं थी । जोगेश्वरी को कहीं बाहर आने जाने और किसी बाहर बाले से बात करने की भी मनाही थी । एक चहचहाती, सुन्दर और सुनहरे पंखों बाली चिड़िया को पिंजरे में डाल दिया गया था । और अब उस चिड़िया को बेचने के लिए शाहूकार ढूंढे जा रहे थे । लोग आते, उसे देखते और चले जाते, पर कोई उसे पसंद ना करता । जोगेश्वरी सुन्दर थी क्योकि उसका मन सुन्दर था, सुन्दरता सिर्फ अच्छा चहरा लेके पैदा होने से थोड़े ना होती है, अब उसके चहरे पे बिरह, अकेलापन, अफ़सोस, लज्जा और कुल की मरियादा का बोझ था, इस बोझ में उसकी सुन्दरता कही खो चुकी थी, या ये कहना भी गलत ना होगा के तीनों ठाकुर शहर के किसी और को ले आये थे, शायद जोगेश्वरी को ले के आये थे पर राजे शिव के पास ही रह गयी थी ।

रोज शिव के लिए, आँखों में भरे शैलाबों को मिटटी में मिलाती । कभी कभी तो मन करता के पिंजरा तोड़ के उड़ जाबे पर कुल की मरयादा, बाप की इज्जत, भाइयों का प्यार पैरों में बेड़ियाँ डाल देता । फिर धीरे धीरे कुछ महीने गुजर गये, जोगेश्वरी भी एक बंद कमरे में रहना सीख गयी पर शिव से अभी तक अलग ना हुई थी, रह रह उसका चहरा याद आता और फिर रोने लगती । उधर शहर में शिव भी अस्पताल से बाहर आचुका था, आग दोनों तरफ बराबर लगी थी, रात में भेष बदल कर दोड़ता-भागता गाँव में ठाकुरों के कोठी में घुस बैठा ।

जोगेश्वरी को फिर से उसकी खोयी हुई घर की चिट्ठी, मां के हांथों का आम का अचार, भाइयों का प्यार बापिस मिल गया था, आज कई महीनो बाद वो खुलकर इतना हँसी थी जितना की सारी जिंदगी ना हँसी होगी । पर ये हँसी ज्यादा देर तक सलामत ना रही । शिव पकड़ लिया गया, फिर से तुड़ाई हुई पर अब कि बार शिव के पिता ने, ठाकुरों के पैर पकड़ के अपने लड़के की जान की सलामती मांगी, अंन्यथा शिव की जीवन लीला समाप्त हो चुकी होती, ठाकुरों ने रहम की भीक तो दी पर साथ में हिदायद भी दी, के अब शिव गाँव में ना दिखे, और अगर दिख गया तो वो तो जान से जायेगा ही, तुम्हारा हुक्का पानी भी बंद हो जायेगा ।

जोगेश्वरी कि शादी एक पडौस के गाँव के एक ठाकुर के साथ तय हो गयी, शिव अब गाँव में ना आता था, जोगेश्वरी सोचती, के अगर एक बार देख भर लेती हो चैन से उस डोली नुमा अर्थी पे बैठ जाती पर अब तो वो भी मुनासिब ना था, दिन भर रोती, खाना पीना सब छोड़ दिया, शादी बाले घर में एक मातम सा छाया था, भाबियों को जली कटी कहने का एक और मौका मिल गया था । कुछ दिन बाद जोगेश्वरी कि शादी होने बाली थी, शिव को भी पता था, पर कुछ कर ना सकता था, उसको भी डर था के अगर कुछ किया तो ठाकुर गाँव में पूरे घर को ना जला दें, आखिर गाँव में तो उन्ही का कानून चलता था । सब कुछ चुपचाप देख रहा था अपनी आँखों के सामने ।

दोपहर का वक़्त था गाँव से कुछ दो चार मील दूर तालाब के चारों ओर हजारों लोगों कि भीड़ जमा थी, कानाफूसी हो रही थी, ठाकुर और उनके तीनों लड़के पडौस के गाँव शादी का शगुन ले के गये थे और दो तीन दिन बाद गाँव में लौट रहे थे । रास्ते में ही थे कि भीड़ देख कर तालाब कि तरफ रुख कर लिया । ठाकुर को पास आते देख सब चुप हो गये, जब और पास आये तो देखा पुलिस वाले ओर कुछ तैराक तालाब से एक लाश निकाल रहे थे, करीब 18 साल कि किसी जवान लड़की कि लाश रही होगी, चहरा पहचान में नहीं आरहा था, तीन चार दिन पुरानी लाश जो थी ।

ठाकुरों के ऊपर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा । बहीं बिलख बिलख के रोने लगे, राजे राजे कहकर चिल्लाने लगे, छोटा भाई बोलता के 'देख ना राजे तेरा शगुन देके आरहे हैं हम, कुछ दिनों में तू दुल्हन बनेगी', ये कहकर शादी का जोड़ा हाथ में लेकर रोने लगा तो बड़े भाई ने उस जोड़े को उसी तालाब में फेंक दिया जिसमे से लाश निकली थी । बाप कि जुबान पे तो ताला पड़ गया था कुछ आवाज ना निकलती थी, जिस कुल कि मर्यादा कि सबको परवाह थी वो आज तालाब के पानी में मिल कर खत्म हो गयी थी । लोगों की फिर से बंद जुबानें फूटने लगी, कोई कहता के 'शंभू के लड़के शिव से शादी कर देता तो बेटी तो बची रहती' तो कोई कहता 'खुद इन्ही लोगों ने मार डाला होगा, दया धरम क्या होता है ये ठाकुर लोग क्या जाने', कोई बोलता के 'अब इन ठाकुरों के यहाँ पानी पीना भी पाप होगा, हत्यारे जो हो गये हैं', कोई कहता के फूल सी बच्ची को इन ठाकुरों ने निगल लिया' । जितने मुं उतनी बातें । साम तक उसी तालाब के किनारे पर बैठे रहे, घर कि औरतों को इस बारे में कोई खबर ना थी । पुलिस वाले लाश का पंचनामा करके अपने साथ ले गये ।

साम को रोते बिलखते चारों बाप बेटे कोठी पहुंचे, सब कुछ उजड़ चूका था उनका, बड़े ठाकुर जोगेश्वरी के कमरे में गये जहाँ उसे कैदियों कि भांति कैद करके रखा था । दरवाजा खोला, देखा तो सामने खिड़की कि ओर देखती हुई जोगेश्वरी खड़ी थी, उसकी आँखों से निरंतर आंसूं बह रहे थे, पता नहीं कब से बिलख रही थी, आँखें लाल हो चुकीं थीं । उसे सब कुछ पता था के गाँव में क्या हुआ था । ठाकुर ने गौड़ कर उसे गले लगा लिया । आज कितने दिनों बाद जोगेश्वरी को अपने पिता का सीना मिला था आंसूं बहाने को ।

"बाबा में येसा कोई काम ना करुँगी जिससे बिरादरी में आपकी थु थु हो, कुल की मर्यादा का नाश हो ओर भाईयों कि इज्जत तार तार हो जाये, आप जहाँ कहेंगें मैं खुसी खुसी बहाँ शादी कर लुंगी पर समाज को आपके ऊपर हँसने ओर बोलने का मौका ना दूंगी" । जोगेश्वरी से इस त्याग और दर्द भरी बातें सुनकर ठाकुर के मुं से कुछ ना निकला, पर पीछे खरे बड़े दाऊ साहब ने कहा,

समाज कि कोई जुबान नहीं होती, समाज बही बोलता है जो हम सुन्ना चाहते है । हम समाज कि खुसी के लिए अपनी बहन कि बलि क्यों चढ़ाएं । पूरा परिवार आंसुयों कि धारा में बह रहा था, पर ये खुसी के आंसूं थे सबको राजे बापिश मिल गयी थी, भाबियाँ भी आज इस घर कि बहु होने में गौरवान्बित महसूस कर रही थी ।

अगले दिन राजे शहर में थी, उसे अपनी खोयी हुई घर कि चिट्ठी, मां के हांथों का आम का अचार और भाइयों की देख-रेख फिर से एक बार बापिस मिल गई थी । उसे शिव मिल गया था ।

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"

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