मौटा बस्ता पीठ पे टांगे, इतहास के पन्नो में खुद को तलाशते हुए, और न जाने क्या क्या याद कर रहा था मैं । रास्ते में था स्कूल के, थोड़ी देर भी हो चुकी थी, पर ठीक है, स्कूल में अव्वल रहने बाले छात्रों के साथ थोड़ी सी रियायत बरती जाती थी । तभी याद आया के मैं अपनी "टाट फट्टी" तो लेना भूल ही गया ।
आप लोगों में से कुछ ही लोगों ने टाट फट्टी के बारे में सुना होगा, एक येसा बिछौना जो हर छात्र अपने घर से स्कूल लाता था अपने साथ । गावों के छोटे छोटे सरकारी स्कूलों में ये सुविधा मुहैया नहीं करवाई जा सकी थी अभी तक, तो हर छात्र अपने घर से ये सुविधा साथ लाता था । और अगर भूल जाये तो किसी दोस्त के अहसान के नीचे दब जाना होता था, और वो दोस्त, वो नहीं होते जो पढाई में अव्वल हों, वो तो वो दोस्त होतें है जिनको आपसे मदद की गुहार हो । आखिर हो भी क्यों ना ! वो आपको अपनी टाट फट्टी में बैठने जो दे रहें हैं और अपना बस्ता जमीन पे रख रहें हैं, वो चाहेगें की मैं उनके गणित के कुछ सवाल हल करूँ, ताकि वो वर्मा जी के बैंत खाने से बाख जाएँ । बैंत तो आप समझते ही होंगे ना, बांस का एक मोटा सा डंडा जिसको रोज सुबहा तेल से नहला के तौयार किया जाता था, हम लोगों की पूजा करने के लिए ।
दौड़ते भागते स्कूल पहुंचा, तो सुबहा की प्राथना सुरु हो चुकी थी, 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वाश कमजोर हो ना' । हेड मास्टर चौबे जी ने बड़ी बड़ी आँखें निकाल कर प्राथना में सामिल हो जाने को कहा । मेरा एक सबसे अच्छा दोस्त जो मुझसे एक पायदान ऊपर था, वो रोज प्राथना करवाता था, नाम था मनीष, जिसे हम प्यार से मोनू बोलते थे, बहुत प्रतिभाशाली छात्र, प्रतिभा का इतना धनी के आज अमेरिका की सेवा कर रहा है । मुझे हमेशा लालशा रहती के कब मैं उस आगे वाली पंती में खड़ा होके प्राथना करूँ, 15 अगस्त और 26 जनबरी की परेड में पुरे गावों में जयकारा लगवाता घूमूं । ये उस समय बड़े गर्व की बात होती थी उन अभिबावकों के लिए जिनके बच्चे परेड की अनुगायी करते थे ।
फटाफट क्लाश में बस्ता रखा और प्राथना में सम्मलित हो गया । प्राथना ख़तम हुयी के सभी अपनी क्लास में चले गए और मैं अपनी क्लास में ललसायी हुई सी आँखों से उस दोस्त की तलाश में लग गया जो मुझसे अपनी टाट फट्टी बांटने वाला था । एक दोस्त मिल गया रविन्द्र सिंह ठाकुर 'दाऊ साहब' पड़ने लिखने में इतना अव्वल कि शायद अगर अपना नाम लिखने को बोला जाये तो वो भी ना लिख पायें । पर दोस्त अच्छा था मेरा, क्योकि बुरे वक़्त में काम आजाता था, किसी को हूल देनी हो तो 'दाऊ साहब' हैं उनके नाम से ही तो अपना रुतवा बनता था, चुकी गाँव के ठाकुर तो किसी के कुछ कहने कि मजाल भी नहीं होती थी, पर जलते सभी थे उससे ।
टाट फट्टी कि व्यवस्था तो गयी पर बिडम्बना ये के मैं अपने दोस्तों के साथ नहीं बैठ सकता था, वो इसलिए के हमारी क्लास तीन भागों में बटी थी, एक भाग अव्वल लड़कों का जिसमे मैं था वो अध्यापक के एक तरफ बैठता था, दूसरा भाग लड़कियों का, जो अध्यापक के दूसरी तरफ और अव्वल लडको के सामने बैठता था और तीसरा भाग सबसे बड़ा भाग था उन विध्राथियों का को पढाई में 'जीरो बटा सन्नाटा' थे और हर दम अव्वल लड़कों के भरोसे पे बैतों से बचते थे और अध्यापक के ठीक सामने बैठते थे । अब मुझे अध्यापक के ठीक सामने बैठना था तीसरे वाले समूह में । सारे अध्यापक और विध्यार्थी अचम्भे में थे कि मैंने ये व्यवस्था परिवर्तन करी तो करी क्यों ?
मैं बहां बैठ कर खुश तो नहीं था पर टाट फट्टी मिल जाने का शुकून भर था । गर्मियों के दिन थे जैसे ही थोडा दिन चढ़ा क्लास बाहर बरगद के पेड़ के नीचे लग गई । जैसे ही लंगड़े पंडित (चपरासी) ने पांच बार लोहे कि तश्तरी पे हथोडा मारा तो क्लास के सभी विध्यार्थियों का मन बैठ गया । वो घंटा वर्मा जी का था गणित पढ़ाते थे वो ।
स्कूल के सारे अध्यापक सिर्फ ज्ञान को तवज्जो देने वाले थे, उनसे जितना बन पड़ा, उतना दिया विध्यार्थियों को, जितना ज्ञान था सारा का सारा निचोड़ दिया था हम बच्चों में, और वो सिर्फ यही सोचते थे कि बस हमारा भविष्य बन जाये । बर्ना आज के अध्यापक तो पढ़ाने से ज्यादा 30 तारीख कि राह जोटते हैं । समय ही कुछ येसा आगया है । एजुकेशन अब धर्म नहीं व्यवशाय है और स्कूल अब मंदिर नहीं ऑफिस हैं । चलो इस बारे में बाद में बात करेंगे, पहले गणित पढ़ लें ।
मैं पढने में होशियार था और गणित तो मेरा पसंदीदा बिषय था, पर मैं अपने सवालों के हल किसी के साथ बांटता नहीं था, अव्वल जो आना था हर वक़्त, होड़ जो लगी थी सबमें, अगर मैं अव्वल नहीं आया तो जो जगह आज मोनू कि है वो कोई और ले लेगा और मेरा सपना चकनाचूर ।
मैंने अपने गणित के सारे सवाल हल किये और वर्मा जी से निरिक्छन करवाके अपनी कॉपी दाऊ साहब को देदी, ताकि वो भी सवालों के हल कि नक़ल कर ले और वर्मा जी के वैंतो से बच जाएँ और जो ऋण (उधार) उन्होंने मुझे दिया था अपनी टाट फट्टी बांटने का वो भी चुक जाये । दाऊ साहब ने सवालों के हल कि नक़ल कि औए कॉपी मुझे बापिस कर दी, फिर क्या था देखते ही देखते सारा समूह जिसको उन सवालों के हल चाहिए थे वर्मा जी के वैतों कि मार से बचने के लिए, मेरा पास आगया, ये बही समूह था जो दाऊ साहब के रौब से जलता भी था और वैतों कि मार से डरता भी था । मैंने किसी को अपनी कॉपी ना दी, क्लास में अव्वल जो आना था ।
भय, इर्ष्या और घमंड एक साथ खड़े हो गए, और जब ये साथ मिल जातें है तो एक बबब्डर का रूप ले लेतें हैं, और वो बबंडर था एक पत्र, "एक प्रेम पत्र"
मुझे आज तक पता ही नहीं चला कि वो पत्र था या कागज का एक कोर पन्ना । हमारे गाँव में चुम्मन मियां ने नया नया जींस पहनने का रिवाज दिया था, मैं भी पहली बार जींस पहन के स्कूल आया था । जींस के पीछे जो दो जेबें होतीं है ना, जिनमे बटन नहीं होता और जिनमे कुछ भी निकाला और डाला जा सकता था । बही जेबें जिनके हम आज भतेरे किस्से सुनतें है कि किसी का बटुवा निकल गया तो किसी का मोबाइल पीछे कि जेब से, पर उस दिन उसी पीछे कि जेब से एक लड़के ने एक कागज का टुकड़ा निकला और सारी क्लास के सामने जोर जोर से उसे पढ़ा । पता नहीं उसमे कुछ लिखा भी था या वो खुद ही अपने मन से पढ़ रहा था । पर जैसा उसने आभास कराया वो मेरा लिखा हुआ प्रेम पत्र मेरी ही क्लास में पढने वाली एक लड़की प्रिया के नाम था ।
"प्रिया गुप्ता" माफ़ करियेगा मैं इसके बारे में बताना भूल गया आपको । लड़कियों का समूह जो हमारे सामने बैठता था उन्हीं में एक लड़की थी प्रिया गुप्ता, बहुत प्यारी थी वो, येसी जैसे भगवान ने फुरशत में उसे बनाया हो, दूध और मलाई से उसके सरीर को ढाला हो, सच में क्या क़यामत थी वो, क्लास में सबसे सुन्दर लड़की, या कहूँ के स्कूल कि 'काजोल' थी वो । दो साल गुजार चूका था मैं स्कूल में पर उससे बात करने कि हिम्मत नहीं जुटा पाया था । बस उसे एक टक देखता रहता था, बहुत पसंद करता था उसे, या कहूँ के लड़कपन का पहला प्यार हो गया था मुझे । "छोटी सी जान - नन्हा सा बच्चा" प्यार का इजहार करे तो कैसे ? बस डरता था इसलिए उससे बात नहीं करता था । फट्टू था मैं, और सब जानते थे कि मैं प्रिया को पसंद करता हूँ, और कहीं ना कहीं प्रिया भी ये बात जानती थी, पर लड़की है पहल करे तो क्यों करे? और वो भी फट्टू लड़के के लिए ।
"मेरी प्रिया,
मैं तुम्हे बहुत प्यार करता हूँ, पर बताने कि हिम्मत आज तक ना हुई । जब तुम हस्ती हो तो तुम्हारे गाल पर जो गड्ढे बनते हैं तब तुम बिलकुल "प्रीती ज़िंटा" लगती हो, और जब अपनी सहेलियों से बातें करती हो तो तुम्हारी आवाज बिलकुल "रानी मुखर्जी" जैसी लगती है, तुम्हारी चाल देखकर तो "सुस्मिता सैन" भी पानी मांग ले, और जब तुम लाल शलवार शूट पहन के आती हो ना स्कूल, कसम से "काजोल" लगती हो । मैं तुम्हारा शाहरुख़ खान बनना चाहता हूँ । बहुत प्यार करता हूँ तुमसे, आई लव यू ।
तुम्हारा
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"अरे इसमे नाम तो डाला ही नहीं है, अरे किसने लिखा है कोन शाहरुख़ खान बनना चाहता है?" पत्र ख़तम करने के बाद आवाज आई ।
फिर वो पत्र हाथों हाथ कहाँ गायब हो गया पता ही नहीं चला । पर वो बातें सभी के ज़हन में बस गयी थी ।
मैं बड़ा लज्जित महसूस कर रहा था, मैंने कभी हिम्मत भी नहीं कि थी प्रिया से बात करने कि, और इतनी बड़ी बात हो गयी । ये बात जंगल में आग कि तरहा फैली और सारे स्कूल को पलक झपकते ही पता चाल गया । सारे आते, मुझसे बात करते और मेरा मजाक बनाते, रोना आरहा था मुझे अपने ऊपर के ये क्या हो गया, चिंता मुझे उस लड़की कि भी थी के "खाया पिया कुछ नहीं और और गिलाश तोडा बारह-आना" उसकी क्या गलती थी फालतू में बदनाम हुए जा रही है ।
सबने मेरा मजाक बनाया सिर्फ दो लोग एसे थे जिन्होंने अभी तक मुझसे बात नहीं कि थी, एक मोनू और दूसरी प्रिया ।
"मुझे पता है तूने कुछ नहीं किया, ये सब उन्ही लोगों कि कारिस्तानी है जिनकी तूने वर्मा जी के हाथों वैत कि पिटाई करायी है सवालों के हल ना बताके" मोमू ने मेरे कंधे पे हाथ रखकर कहा, बड़ा धैर्य बंधाया था उसे उस वक़्त । "तू घर जा में सब संभाल लूँगा" बड़ी इज्जत करते थे उसकी सब स्कूल में । मैंने बस्ता लिया और घर के लिए रवाना हो गया ।
थोड़ी ही दूर चला तो पीछे से आवाज आई ।
"रुको" ये प्रिया कि आवाज थी, मोनू ने उसे भी घर भेज दिया था ।
ये सब क्या बकवाश लिखा है तुमने ?
नहीं मैंने ....... उसने मुझे बोलने नहीं दिया, आँखों से मोटे मोटे आंसू टपका रही थी और बोले जा रही थी ।
क्या मैंने नहीं, उसने सबके सामने पढ़ा था वो पत्र, और कहते हो के तुमने नहीं लिखा. मैंने सुरु बात में नाम नहीं सुना था मेरा ही नाम लिया था उसने, बोलो, अब बोलते क्यों नहीं मेरा ही नाम लिया था ना.
मेरी बात तो सुनो........
कुछ नहीं सुन्ना मुझे अगर में काजोल के जैसे दिखाती हूँ तो खुद नहीं बोल पा रहे थे अपने मुह से, उस छछुंदर के मुह अपना नाम सुना तो येसा लगा के उसकी दर्दन मरोड़ दूँ । अब तुम्हारी मरोड़ने का मन कर रहा है. दो साल से इंतजार में हूँ के ये फट्टू कभी तो कुछ बोलेगा और आज बोला भी तो येसे. मैंने उस छछुंदर का मुह नोच लेना है अगर अबकी बार उसने मेरा नाम बोला । और तुम तो कुछ बोलो ही मत, क्या लिखा था उसमे, मेरी आवाज रानी मुखर्जी जैसी है मेरी आवाज इतनी बुरी लगती है तुम्हें, अरे एक बार कह के तो देखते मैंने ना मुह सिल्वा लेना था अपना । एक बार अपना मुह तो खोलते, मेरी आवाज कैसी है इसके बारे में बकने कि क्या जरूरत थी । अरे सीधा सीधा मुझसे कहते तो, क्या मैं खा जाती तुम्हे, अरे मंद बुद्धि बोल देता सीधे सीधे के मैं तेरी काजोल हूँ तो मैंने भी बोल देना था कि तू मेरा शाहरुख़ खान हैं ।
"क्या" मेरी खुसी का और आश्चर्य का तो ठिकाना ही नहीं रहा ।
अब उसका गुस्सा ठंडा हो गया था और शर्म ने चादर ओढ़ना सुरु कर दिया था, शायद उसे खुद भी पता नहीं था कि उसने खुद ही पहल कर दी थी.
अच्छा एक बात तो बाताओ, क्या मैं सच में काजोल लगती हूँ, जब मैं लाल शलवार शूट पहनती हूँ? मैं लाल शलवार शूट पहन के आउंगी कल । बस इतना कहके वो घर
कि तरफ सरमा के भाग गयी । और मैं अवाक सा खड़ा उसे देखता रहा । मैं सब भूल चूका था वो ख़त, वो बेइज्जती, वो मजाक सब कुछ । उस लड़के को धन्यवाद दिया जिसने ये काल्पनिक पत्र लिखा था ।
अगले दिन शाहरुख़ खान और काजोल एक टाट फट्टी पर बैठे हुए थे, आज काजोल अपनी टाट फट्टी भूल आई थी ।
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
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