Thursday, June 27, 2013

मेरी कहानी (पार्ट - 5) - "जोगेश्वरी"



ठाकुर तेज बहाद्दुर सिंह गाँव कीं जानी मानी हस्तियों में एक गिने जाते थे, बहुत रौब था उनका गाँव में । यहाँ तक की कोई भी मंत्री संत्री आये उनकी चौखट पे माथा टेके बिना जाता नहीं था । बिधाता ने नाम, धन दौलत से तो धनि बनाया ही था, साथ में किस्मत से भी धनि बनाया था । जिस भी काम में हाथ डालते वो अपने आप ही हो जाता, ज्यादा सोच बिचार की आवस्यकता ना आन पड़ती थी कभी, तीन बेटों और एक बेटी के पिता भी थे । तीनो लड़कों में पिता की ही छबी दिखाई देती थी ।

बड़े लड़के भूपेश बहाद्दुर सिंह ने राजनीति विज्ञानं की सारी किताबें तो रटी ही रखी थी साथ में अपने पिता से सारे राजनीति के गुण बिरासत में भी लिए थे, और राजनीति का सारा भार इन्ही महाशय के कन्धों पर बिराजमान था । मझले सपुत्र रूपेश बहाद्दुर कानून विज्ञानं के महा पंडित थे, अपना ज्यादा से ज्यादा वक़्त अदालत मे ही बिताते थे, और बचा कुचा वक़्त भी जो घर के लिए बचता उसमे भी येसे हायो भायो के मानो किसी मुकद्दमे की पैरवी कर रहे हो । सबसे छोटा लड़का मुकेश बहाद्दुर घर में सभी का आखों का तारा था, बाप और बड़े भाइयों का प्यार उमड़ उमड़ के उसके ऊपर आया था, और उस प्यार ने आवारा और रसिक बना दिया था, उसका खौफ भी था पुरे गाँव में, "मियां जो थानेदार तो डर काहे का" किसी को कही भी धर पटकता । ये कहना अनुचित ना होगा के बड़े ठाकुर ने अपने सारे गुणों का बटवारा अपने तीनों लड़कों में चुन चुन के किया था । तीनो गाँव में बड़े दाऊ साहब, मझले दाऊ साहब और छोटे दाऊ साहब के नाम से पूजते थे ।

इन तीनों से छोटी, एक लड़की थी जोगेश्वरी जिसमें ठाकुरों जैसी कोई चीज ना थी, सोच बिलकुल अलग, बड़ों को इज्जत और छोटों को प्यार देने वाली, बोली इतनी मीठी के लोगों को शुगर के बीमारी लग जाये, पढाई लिखाई में सबसे आगे, हमेशा अव्वल आने वाली, ना ऊँच नीच की फिकर ना झूंठी शान की परवाह, बस अपने में ही मस्त, उसकी एक अलग ही दुनिया थी, जो ठाकुर पुरुषत्व से मेल ना खाती थी, पर सारे भाई उस पर जान छिड़कते थे । हल्का सा खांसी झुखाम हो जाने पर शहर का सबसे अच्छा डॉक्टर बुलवा लिया जाता था ।

वो इतनी सुन्दर थी कि जो कोई भी उसे देखता, बस चकित हो जाता, शायद इतनी बला की सुन्दर लड़की कभी देखि ना थी, अभी कुछ 16 या 18 साल की रही होगी, पर भरा पूरा शरीर था । बारहवीं पास कर चुकी थी और आगे भी पढना चाहती थी, पर ठाकुर ने उसकी शादी की रट लगा रखी थी । जैसे तैसे भाइयों का सहारा ले कर बाप को समझाया, और आगे की पढाई करने के लिए शहर जाने को राजी कर लिया ।

कला और शाहित्य में बिशेष रूचि थी तो स्नातक उसी बिषय से करने कि ठान ली, शहर के सबसे बड़े कॉलेज में दाखिला ले लिया । सुरुवात कुछ अच्छी नहीं गुजरी, उससे भी कहीं ज्यादा अच्छे लड़के लड़कियां बहाँ थे, मैं ये तो नहीं कहूँगा के वे सब संसकारी या पढ़ने में तेज थे पर हाँ, मधुर भाषी और रहन शहन में अच्छे थे । अंग्रेजी तो जुवान पे येसी बसी थी जैसे कोई ढूध पीता बच्चा माँ से "बू बू" कहके ढूध मांगता हो । जोगेश्वरी बड़ी ही अशहज महसूश करती, और क्लास के एक कौने में बैठी रहती, किसी से कुछ ना बोलती बस किताबों में मुह घुसाए रहती, जैसे कोई चोर कोई चोरी करके छुपे जा रहा हो । उसे हर घडी यही डर रहता के अगर उसने मुह खोला तो लोग उसके हिंदी भाषी होने पे उसका मजाक बनायेंगे । अरे कोई उस बला सी सुन्दर लड़की को जाके बताये, कि जब वो बोलेगी तो लोगों को उसे देखने से ही फुरशत ना मिलेगी तो सुनेगा कौन के हिंदी बोली या अंग्रेजी, और अगर सुन  भी लिया तो भी कोई गम ना होगा, हिंदी तो हमारी मात्र भाषा है ।

उसी कि क्लास में एक लड़का था शिव दत्त कुमार, जिसने भली भाँती इस परिवेश को अपना लिया था, वो जोगेश्वरी के गाँव से ही था, पर गाँव में तो शायद कभी एक दूसरे के सामने आने का मौका ना मिला होगा । जोगेश्वरी ठाकुर खानदान से थी और शिव गाँव कि एक छोटी बिरादरी से ताल्लुक रखता था, हालाँकि उसके संष्कार, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, चतुरता और परिश्रम का कोई शानी ना था । उसके पिता गाँव में जूते सिलने का काम करते थे, पर बेटे के भविष्य कि लालशा और चिंता ने उन्हें इतना मेहनती बना दिया था के जूते सिलने के साथ साथ मजूरी में भी हाथ आजमा लिया करते ताकि लड़के को एक अच्छा भविष्य मिले, यही सोच कर उसे गाँव में ना रहने दिया और अपने एक लौते कलेजे के टुकडे को दूर शहर अपनी बहन के घर भेज दिया, हर महीने अपनी गाड़ी कमाई से उसे पैसे भेजते जिससे उसका निर्वाह हो सके ।

शिव जोगेश्वरी कि मदद करना चाहता था, पर डरता था कि अगर "नीच" कहकर दुत्कार दिया तो किसी को क्या मुह दिखायेगा । साम के 5 बज रहे थे, क्लास ख़तम हो चुकी थी, सभी लोग धीरे धीरे अपने घर के लिए निकलते जा रहे थे, जोगेश्वरी अभी भी अपनी कोने वाली जगह बैठी थी, शायद बड़ी देर से आँखों में शैलाब को दबाये, पर उसके चहरे पर शिकन साफ देखी जा सकती थी, जो चाह कर भी वो छुपा ना सकी । शिव ने कुछ दुरी बनाकर पूंछा,

"क्या हुआ राजे"
जोगेश्वरी ने बड़ी हैरानी भरी नज़रों से शिव को देखा, उसने इन 3 महीनों में पहली बार अनजानों भरे इस शरह में किसी से वो नाम सुना था जो उसकी कोठी में हर वक़्त गूंजता रहता था, कभी ठाकुर साहब अपनी बेटी को बुलाते, तो भाइयों कि जुबान पे तो हर वक़्त यही नाम रहता, तो कभी घर के नौकर चाकर, राजे बहनजी, खसखस का शरवत बना दूँ या कहो तो नीबू कि शिकंजी । उसके नैनो में भरा शैलाब उमड़ आया, और मखमली गालों से होता हुआ जमीन को छूने ही वाला था के शिव ने हाथ बढ़ा कर उस शैलाब को मिट्टी में मिलने से बचा लिया ।

"इन आंसुयों को ऐसे जाया मत करो, इनमे बहुत आग है"
शिव के इन गगन भेदी शब्दों के आगे जोगेश्वरी का मौन एक पल के लिए और ना ढहर सका, और तीन महीनों के मूक किरदार में आज आवाज आगई । और अब यहाँ भाषा कि कोई दिवार ना थी ।

"तुम्हें कैसे पता कि मेरा नाम राजे है, क्या तुम मुझे जानते हो, कौन हो, और कहाँ से हो तुम?"
जोगेश्वरी ने एक साथ कई सारे सवाल पूंछ डाले ।

"अरे रुको रुको आराम से, एक एक करके पूंछो सब बताऊंगा में" शिव ने कहा और उसे अपने वारे में सब बता दिया ।

उस दिन से जोगेश्वरी को वो पराया शहर भी अपना लगने लगा था, होता ही यही है, किसी दूर अन्जान शहर में अगर कोई अपने गाँव का मिल जाये तो ऐसा लगता है के सारा का सारा गाँव हमारी आखों के सामने है, फिर कुछ नहीं सूझता, फिर बही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, बही छोटी छोटी गलियां, खेत-खलियान, पहाड़, नदी, वो अपने सब दोस्तों के साथ छुपा-छुपी खेलना, गेंद से टीपू को गिराना, फिर उसे बनाना, वो साईकिल के पहियों को दूर तक दौड़ाना, ऐसे बहुत से भूले बिसरे पल याद आजाते हैं हमें ।

जोगेश्वरी के लिए शिव उसके घर से आई हुई वो चिट्ठी थी, जिसमे बह अपने घर कि खुशबू लेती थी, उसकी माँ का बनाया हुआ आम का अचार  था, जिसके चटखारे वो हर वक़्त खाने के साथ लेती, उसके भाइयों कि देख-रेख थी जो हर वक़्त उसके साथ रहती, जोगेश्वरी को शिव में उसका पूरा परिवार और पूरा गाँव दिखने लगा था । और धीरे धीरे उस परिवार और उस गाँव ने एक रिश्ते का नाम ले लिया "प्यार"

जब दोनों एक साथ होते तो एसा लगता के दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया गया होगा । धीरे धीरे सारे कॉलेज को पता चला फिर सारे शहर को, कहते हैं "घांस और कांस अपने आप उगते हैं" किसी ने जाकर ठाकुर साहब को भी बता दिया इन दोनों के वारे में ।

फिर क्या था गाँव से राजनीती के ज्ञानी, कानून के पंडित और गुंडा-गर्दी के सरदार तीनो अगली दोपहन कॉलेज में खड़े थे, शिव कि चार पांच हड्डियाँ तोड़ी, सर भी फोड़ दिया, यहाँ तक कि उसे बही कॉलेज में अधमरा छोड़कर जोगेश्वरी को अपने साथ गाँव ले गये, कुल की मरियादा का ठेका जो ले रखा था एन तीनों ठाकुरों ने ।

जोगेश्वरी अब सबकी नज़रों में चढ़ चुकी थी, उसकी भाबियाँ, जिनकी कल तक उससे ऊँची आवाज में बात करने की भी हिम्मत ना हुआ करती थी आज उसे हर बात पर ताने मारने लगीं थी । जोगेश्वरी को कहीं बाहर आने जाने और किसी बाहर बाले से बात करने की भी मनाही थी । एक चहचहाती, सुन्दर और सुनहरे पंखों बाली चिड़िया को पिंजरे में डाल दिया गया था । और अब उस चिड़िया को बेचने के लिए शाहूकार ढूंढे जा रहे थे । लोग आते, उसे देखते और चले जाते, पर कोई उसे पसंद ना करता । जोगेश्वरी सुन्दर थी क्योकि उसका मन सुन्दर था, सुन्दरता सिर्फ अच्छा चहरा लेके पैदा होने से थोड़े ना होती है, अब उसके चहरे पे बिरह, अकेलापन, अफ़सोस, लज्जा और कुल की मरियादा का बोझ था, इस बोझ में उसकी सुन्दरता कही खो चुकी थी, या ये कहना भी गलत ना होगा के तीनों ठाकुर शहर के किसी और को ले आये थे, शायद जोगेश्वरी को ले के आये थे पर राजे शिव के पास ही रह गयी थी ।

रोज शिव के लिए, आँखों में भरे शैलाबों को मिटटी में मिलाती । कभी कभी तो मन करता के पिंजरा तोड़ के उड़ जाबे पर कुल की मरयादा, बाप की इज्जत, भाइयों का प्यार पैरों में बेड़ियाँ डाल देता । फिर धीरे धीरे कुछ महीने गुजर गये, जोगेश्वरी भी एक बंद कमरे में रहना सीख गयी पर शिव से अभी तक अलग ना हुई थी, रह रह उसका चहरा याद आता और फिर रोने लगती । उधर शहर में शिव भी अस्पताल से बाहर आचुका था, आग दोनों तरफ बराबर लगी थी, रात में भेष बदल कर दोड़ता-भागता गाँव में ठाकुरों के कोठी में घुस बैठा ।

जोगेश्वरी को फिर से उसकी खोयी हुई घर की चिट्ठी, मां के हांथों का आम का अचार, भाइयों का प्यार बापिस मिल गया था, आज कई महीनो बाद वो खुलकर इतना हँसी थी जितना की सारी जिंदगी ना हँसी होगी । पर ये हँसी ज्यादा देर तक सलामत ना रही । शिव पकड़ लिया गया, फिर से तुड़ाई हुई पर अब कि बार शिव के पिता ने, ठाकुरों के पैर पकड़ के अपने लड़के की जान की सलामती मांगी, अंन्यथा शिव की जीवन लीला समाप्त हो चुकी होती, ठाकुरों ने रहम की भीक तो दी पर साथ में हिदायद भी दी, के अब शिव गाँव में ना दिखे, और अगर दिख गया तो वो तो जान से जायेगा ही, तुम्हारा हुक्का पानी भी बंद हो जायेगा ।

जोगेश्वरी कि शादी एक पडौस के गाँव के एक ठाकुर के साथ तय हो गयी, शिव अब गाँव में ना आता था, जोगेश्वरी सोचती, के अगर एक बार देख भर लेती हो चैन से उस डोली नुमा अर्थी पे बैठ जाती पर अब तो वो भी मुनासिब ना था, दिन भर रोती, खाना पीना सब छोड़ दिया, शादी बाले घर में एक मातम सा छाया था, भाबियों को जली कटी कहने का एक और मौका मिल गया था । कुछ दिन बाद जोगेश्वरी कि शादी होने बाली थी, शिव को भी पता था, पर कुछ कर ना सकता था, उसको भी डर था के अगर कुछ किया तो ठाकुर गाँव में पूरे घर को ना जला दें, आखिर गाँव में तो उन्ही का कानून चलता था । सब कुछ चुपचाप देख रहा था अपनी आँखों के सामने ।

दोपहर का वक़्त था गाँव से कुछ दो चार मील दूर तालाब के चारों ओर हजारों लोगों कि भीड़ जमा थी, कानाफूसी हो रही थी, ठाकुर और उनके तीनों लड़के पडौस के गाँव शादी का शगुन ले के गये थे और दो तीन दिन बाद गाँव में लौट रहे थे । रास्ते में ही थे कि भीड़ देख कर तालाब कि तरफ रुख कर लिया । ठाकुर को पास आते देख सब चुप हो गये, जब और पास आये तो देखा पुलिस वाले ओर कुछ तैराक तालाब से एक लाश निकाल रहे थे, करीब 18 साल कि किसी जवान लड़की कि लाश रही होगी, चहरा पहचान में नहीं आरहा था, तीन चार दिन पुरानी लाश जो थी ।

ठाकुरों के ऊपर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा । बहीं बिलख बिलख के रोने लगे, राजे राजे कहकर चिल्लाने लगे, छोटा भाई बोलता के 'देख ना राजे तेरा शगुन देके आरहे हैं हम, कुछ दिनों में तू दुल्हन बनेगी', ये कहकर शादी का जोड़ा हाथ में लेकर रोने लगा तो बड़े भाई ने उस जोड़े को उसी तालाब में फेंक दिया जिसमे से लाश निकली थी । बाप कि जुबान पे तो ताला पड़ गया था कुछ आवाज ना निकलती थी, जिस कुल कि मर्यादा कि सबको परवाह थी वो आज तालाब के पानी में मिल कर खत्म हो गयी थी । लोगों की फिर से बंद जुबानें फूटने लगी, कोई कहता के 'शंभू के लड़के शिव से शादी कर देता तो बेटी तो बची रहती' तो कोई कहता 'खुद इन्ही लोगों ने मार डाला होगा, दया धरम क्या होता है ये ठाकुर लोग क्या जाने', कोई बोलता के 'अब इन ठाकुरों के यहाँ पानी पीना भी पाप होगा, हत्यारे जो हो गये हैं', कोई कहता के फूल सी बच्ची को इन ठाकुरों ने निगल लिया' । जितने मुं उतनी बातें । साम तक उसी तालाब के किनारे पर बैठे रहे, घर कि औरतों को इस बारे में कोई खबर ना थी । पुलिस वाले लाश का पंचनामा करके अपने साथ ले गये ।

साम को रोते बिलखते चारों बाप बेटे कोठी पहुंचे, सब कुछ उजड़ चूका था उनका, बड़े ठाकुर जोगेश्वरी के कमरे में गये जहाँ उसे कैदियों कि भांति कैद करके रखा था । दरवाजा खोला, देखा तो सामने खिड़की कि ओर देखती हुई जोगेश्वरी खड़ी थी, उसकी आँखों से निरंतर आंसूं बह रहे थे, पता नहीं कब से बिलख रही थी, आँखें लाल हो चुकीं थीं । उसे सब कुछ पता था के गाँव में क्या हुआ था । ठाकुर ने गौड़ कर उसे गले लगा लिया । आज कितने दिनों बाद जोगेश्वरी को अपने पिता का सीना मिला था आंसूं बहाने को ।

"बाबा में येसा कोई काम ना करुँगी जिससे बिरादरी में आपकी थु थु हो, कुल की मर्यादा का नाश हो ओर भाईयों कि इज्जत तार तार हो जाये, आप जहाँ कहेंगें मैं खुसी खुसी बहाँ शादी कर लुंगी पर समाज को आपके ऊपर हँसने ओर बोलने का मौका ना दूंगी" । जोगेश्वरी से इस त्याग और दर्द भरी बातें सुनकर ठाकुर के मुं से कुछ ना निकला, पर पीछे खरे बड़े दाऊ साहब ने कहा,

समाज कि कोई जुबान नहीं होती, समाज बही बोलता है जो हम सुन्ना चाहते है । हम समाज कि खुसी के लिए अपनी बहन कि बलि क्यों चढ़ाएं । पूरा परिवार आंसुयों कि धारा में बह रहा था, पर ये खुसी के आंसूं थे सबको राजे बापिश मिल गयी थी, भाबियाँ भी आज इस घर कि बहु होने में गौरवान्बित महसूस कर रही थी ।

अगले दिन राजे शहर में थी, उसे अपनी खोयी हुई घर कि चिट्ठी, मां के हांथों का आम का अचार और भाइयों की देख-रेख फिर से एक बार बापिस मिल गई थी । उसे शिव मिल गया था ।

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"

Sunday, June 16, 2013

मेरी कहानी (पार्ट - 4) - "स्कूल कि टाट फट्टी"



मौटा बस्ता पीठ पे टांगे, इतहास के पन्नो में खुद को तलाशते हुए, और न जाने क्या क्या याद कर रहा था मैं । रास्ते में था स्कूल के, थोड़ी देर भी हो चुकी थी, पर ठीक है, स्कूल में अव्वल रहने बाले छात्रों के साथ थोड़ी सी रियायत बरती जाती थी । तभी याद आया के मैं अपनी "टाट फट्टी" तो लेना भूल ही गया ।

आप लोगों में से कुछ ही लोगों ने टाट फट्टी के बारे में सुना होगा, एक येसा बिछौना जो हर छात्र अपने घर से स्कूल लाता था अपने साथ । गावों के छोटे छोटे सरकारी स्कूलों में ये सुविधा मुहैया नहीं करवाई जा सकी थी अभी तक, तो हर छात्र अपने घर से ये सुविधा साथ लाता था । और अगर भूल जाये तो किसी दोस्त के अहसान के नीचे दब जाना होता था, और वो दोस्त, वो नहीं होते जो पढाई में अव्वल हों, वो तो वो दोस्त होतें है जिनको आपसे मदद की गुहार हो । आखिर हो भी क्यों ना ! वो आपको अपनी टाट फट्टी में बैठने जो दे रहें हैं और अपना बस्ता जमीन पे रख रहें हैं, वो चाहेगें की मैं उनके गणित के कुछ सवाल हल करूँ, ताकि वो वर्मा जी के बैंत खाने से बाख जाएँ । बैंत तो आप समझते ही होंगे ना, बांस का एक मोटा सा डंडा जिसको रोज सुबहा तेल से नहला के तौयार किया जाता था, हम लोगों की पूजा करने के लिए ।

दौड़ते भागते स्कूल पहुंचा, तो सुबहा की प्राथना सुरु हो चुकी थी, 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वाश कमजोर हो ना' । हेड मास्टर चौबे जी ने बड़ी बड़ी आँखें निकाल कर प्राथना में सामिल हो जाने को कहा । मेरा एक सबसे अच्छा दोस्त जो मुझसे एक पायदान ऊपर था, वो रोज प्राथना करवाता था, नाम था मनीष, जिसे हम प्यार से मोनू बोलते थे, बहुत प्रतिभाशाली छात्र, प्रतिभा का इतना धनी के आज अमेरिका की सेवा कर रहा है । मुझे हमेशा लालशा रहती के कब मैं उस आगे वाली पंती में खड़ा होके प्राथना करूँ, 15 अगस्त और 26 जनबरी की परेड में पुरे गावों में जयकारा लगवाता घूमूं । ये उस समय बड़े गर्व की बात होती थी उन अभिबावकों के लिए जिनके बच्चे परेड की अनुगायी करते थे । 

फटाफट क्लाश में बस्ता रखा और प्राथना में सम्मलित हो गया । प्राथना ख़तम हुयी के सभी अपनी क्लास में चले गए और मैं अपनी क्लास में ललसायी हुई सी आँखों से उस दोस्त की तलाश में लग गया जो मुझसे अपनी टाट फट्टी बांटने वाला था । एक दोस्त मिल गया रविन्द्र सिंह ठाकुर 'दाऊ साहब' पड़ने लिखने में इतना अव्वल कि शायद अगर अपना नाम लिखने को बोला जाये तो वो भी ना लिख पायें । पर दोस्त अच्छा था मेरा, क्योकि बुरे वक़्त में काम आजाता था, किसी को हूल देनी हो तो 'दाऊ साहब' हैं उनके नाम से ही तो अपना रुतवा बनता था, चुकी गाँव के ठाकुर तो किसी के कुछ कहने कि मजाल भी नहीं होती थी, पर जलते सभी थे उससे ।

टाट फट्टी कि व्यवस्था तो गयी पर बिडम्बना ये के मैं अपने दोस्तों के साथ नहीं बैठ सकता था, वो इसलिए के हमारी क्लास तीन भागों में बटी थी, एक भाग अव्वल लड़कों का जिसमे मैं था वो अध्यापक के एक तरफ बैठता था, दूसरा भाग लड़कियों का, जो अध्यापक के दूसरी तरफ और अव्वल लडको के सामने बैठता था और तीसरा भाग सबसे बड़ा भाग था उन विध्राथियों का को पढाई में 'जीरो बटा सन्नाटा' थे और हर दम अव्वल लड़कों के भरोसे पे बैतों से बचते थे और अध्यापक के ठीक सामने बैठते थे । अब मुझे अध्यापक के ठीक सामने बैठना था तीसरे वाले समूह में । सारे अध्यापक और विध्यार्थी अचम्भे में थे कि मैंने ये व्यवस्था परिवर्तन करी तो करी क्यों ?

मैं बहां बैठ कर खुश तो नहीं था पर टाट फट्टी मिल जाने का शुकून भर था । गर्मियों के दिन थे जैसे ही थोडा दिन चढ़ा क्लास बाहर बरगद के पेड़ के नीचे लग गई । जैसे ही लंगड़े पंडित (चपरासी) ने पांच बार लोहे कि तश्तरी पे हथोडा मारा तो क्लास के सभी विध्यार्थियों का मन बैठ गया । वो घंटा वर्मा जी का था गणित पढ़ाते थे वो । 

स्कूल के सारे अध्यापक सिर्फ ज्ञान को तवज्जो देने वाले थे, उनसे जितना बन पड़ा, उतना दिया विध्यार्थियों को, जितना ज्ञान था सारा का सारा निचोड़ दिया था हम बच्चों में, और वो सिर्फ यही सोचते थे कि बस हमारा भविष्य बन जाये । बर्ना आज के अध्यापक तो पढ़ाने से ज्यादा 30 तारीख कि राह जोटते हैं । समय ही कुछ येसा आगया है । एजुकेशन अब धर्म नहीं व्यवशाय है और स्कूल अब मंदिर नहीं ऑफिस हैं । चलो इस बारे में बाद में बात करेंगे, पहले गणित पढ़ लें ।

मैं पढने में होशियार था और गणित तो मेरा पसंदीदा बिषय था, पर मैं अपने सवालों के हल किसी के साथ बांटता नहीं था, अव्वल जो आना था हर वक़्त, होड़ जो लगी थी सबमें, अगर मैं अव्वल नहीं आया तो जो जगह आज मोनू कि है वो कोई और ले लेगा और मेरा सपना चकनाचूर । 

मैंने अपने गणित के सारे सवाल हल किये और वर्मा जी से निरिक्छन करवाके अपनी कॉपी दाऊ साहब को देदी, ताकि वो भी सवालों के हल कि नक़ल कर ले और वर्मा जी के वैंतो से बच जाएँ और जो ऋण (उधार) उन्होंने मुझे दिया था अपनी टाट फट्टी बांटने का वो भी चुक जाये । दाऊ साहब ने सवालों के हल कि नक़ल कि औए कॉपी मुझे बापिस कर दी, फिर क्या था देखते ही देखते सारा समूह जिसको उन सवालों के हल चाहिए थे वर्मा जी के वैतों कि मार से बचने के लिए, मेरा पास आगया, ये बही समूह था जो दाऊ साहब के रौब से जलता भी था और वैतों कि मार से डरता भी था । मैंने किसी को अपनी कॉपी ना दी, क्लास में अव्वल जो आना था ।

भय, इर्ष्या और घमंड एक साथ खड़े हो गए, और जब ये साथ मिल जातें है तो एक बबब्डर का रूप ले लेतें हैं, और वो बबंडर था एक पत्र, "एक प्रेम पत्र"

मुझे आज तक पता ही नहीं चला कि वो पत्र था या कागज का एक कोर पन्ना । हमारे गाँव में चुम्मन मियां ने नया नया जींस पहनने का रिवाज दिया था, मैं भी पहली बार जींस पहन के स्कूल आया था । जींस के पीछे जो दो जेबें होतीं है ना, जिनमे बटन नहीं होता और जिनमे कुछ भी निकाला और डाला जा सकता था । बही जेबें जिनके हम आज भतेरे किस्से सुनतें है कि किसी का बटुवा निकल गया तो किसी का मोबाइल पीछे कि जेब से, पर उस दिन उसी पीछे कि जेब से एक लड़के ने एक कागज का टुकड़ा निकला और सारी क्लास के सामने जोर जोर से उसे पढ़ा । पता नहीं उसमे कुछ लिखा भी था या वो खुद ही अपने मन से पढ़ रहा था । पर जैसा उसने आभास कराया वो मेरा लिखा हुआ प्रेम पत्र मेरी ही क्लास में पढने वाली एक लड़की प्रिया के नाम था । 

"प्रिया गुप्ता" माफ़ करियेगा मैं इसके बारे में बताना भूल गया आपको । लड़कियों का समूह जो हमारे सामने बैठता था उन्हीं में एक लड़की थी प्रिया गुप्ता, बहुत प्यारी थी वो, येसी जैसे भगवान ने फुरशत में उसे बनाया हो, दूध और मलाई से उसके सरीर को ढाला हो, सच में क्या क़यामत थी वो, क्लास में सबसे सुन्दर लड़की, या कहूँ के स्कूल कि 'काजोल' थी वो । दो साल गुजार चूका था मैं स्कूल में पर उससे बात करने कि हिम्मत नहीं जुटा पाया था । बस उसे एक टक देखता रहता था, बहुत पसंद करता था उसे, या कहूँ के लड़कपन का पहला प्यार हो गया था मुझे । "छोटी सी जान - नन्हा सा बच्चा" प्यार का इजहार करे तो कैसे ? बस डरता था इसलिए उससे बात नहीं करता था । फट्टू था मैं, और सब जानते थे कि मैं प्रिया को पसंद करता हूँ, और कहीं ना कहीं प्रिया भी ये बात जानती थी, पर लड़की है पहल करे तो क्यों करे? और वो भी फट्टू लड़के के लिए ।

"मेरी प्रिया,

मैं तुम्हे बहुत प्यार करता हूँ, पर बताने कि हिम्मत आज तक ना हुई । जब तुम हस्ती हो तो तुम्हारे गाल पर जो गड्ढे बनते हैं तब तुम बिलकुल "प्रीती ज़िंटा" लगती हो, और जब अपनी सहेलियों से बातें करती हो तो तुम्हारी आवाज बिलकुल "रानी मुखर्जी" जैसी लगती है, तुम्हारी चाल देखकर तो "सुस्मिता सैन" भी पानी मांग ले, और जब तुम लाल शलवार शूट पहन के आती हो ना स्कूल, कसम से "काजोल" लगती हो । मैं तुम्हारा शाहरुख़ खान बनना चाहता हूँ । बहुत प्यार करता हूँ तुमसे, आई लव यू ।

तुम्हारा
------------"

"अरे इसमे नाम तो डाला ही नहीं है, अरे किसने लिखा है कोन शाहरुख़ खान बनना चाहता है?" पत्र ख़तम करने के बाद आवाज आई ।
फिर वो पत्र हाथों हाथ कहाँ गायब हो गया पता ही नहीं चला । पर वो बातें सभी के ज़हन में बस गयी थी ।

मैं बड़ा लज्जित महसूस कर रहा था, मैंने कभी हिम्मत भी नहीं कि थी प्रिया से बात करने कि, और इतनी बड़ी बात हो गयी । ये बात जंगल में आग कि तरहा फैली और सारे स्कूल को पलक झपकते ही पता चाल गया । सारे आते, मुझसे बात करते और मेरा मजाक बनाते, रोना आरहा था मुझे अपने ऊपर के ये क्या हो गया, चिंता मुझे उस लड़की कि भी थी के "खाया पिया कुछ नहीं और और गिलाश तोडा बारह-आना" उसकी क्या गलती थी फालतू में बदनाम हुए जा रही है । 

सबने मेरा मजाक बनाया सिर्फ दो लोग एसे थे जिन्होंने अभी तक मुझसे बात नहीं कि थी, एक मोनू और दूसरी प्रिया ।

"मुझे पता है तूने कुछ नहीं किया, ये सब उन्ही लोगों कि कारिस्तानी है जिनकी तूने वर्मा जी के हाथों वैत कि पिटाई करायी है सवालों के हल ना बताके" मोमू ने मेरे कंधे पे हाथ रखकर कहा, बड़ा धैर्य बंधाया था उसे उस वक़्त । "तू घर जा में सब संभाल लूँगा" बड़ी इज्जत करते थे उसकी सब स्कूल में । मैंने बस्ता लिया और घर के लिए रवाना हो गया ।

थोड़ी ही दूर चला तो पीछे से आवाज आई ।
"रुको" ये प्रिया कि आवाज थी, मोनू ने उसे भी घर भेज दिया था ।
ये सब क्या बकवाश लिखा है तुमने ?
नहीं मैंने ....... उसने मुझे बोलने नहीं दिया, आँखों से मोटे मोटे आंसू टपका रही थी और बोले जा रही थी ।
क्या मैंने नहीं, उसने सबके सामने पढ़ा था वो पत्र, और कहते हो के तुमने नहीं लिखा. मैंने सुरु बात में नाम नहीं सुना था मेरा ही नाम लिया था उसने, बोलो, अब बोलते क्यों नहीं मेरा ही नाम लिया था ना. 
मेरी बात तो सुनो........
कुछ नहीं सुन्ना मुझे अगर में काजोल के जैसे दिखाती हूँ तो खुद नहीं बोल पा रहे थे अपने मुह से, उस छछुंदर के मुह अपना नाम सुना तो येसा लगा के उसकी दर्दन मरोड़ दूँ । अब तुम्हारी मरोड़ने का मन कर रहा है. दो साल से इंतजार में हूँ के ये फट्टू कभी तो कुछ बोलेगा और आज बोला भी तो येसे. मैंने उस छछुंदर का मुह नोच लेना है अगर अबकी बार उसने मेरा नाम बोला । और तुम तो कुछ बोलो ही मत, क्या लिखा था उसमे, मेरी आवाज रानी मुखर्जी जैसी है मेरी आवाज इतनी बुरी लगती है तुम्हें, अरे एक बार कह के तो देखते मैंने ना मुह सिल्वा लेना था अपना । एक बार अपना मुह तो खोलते, मेरी आवाज कैसी है इसके बारे में बकने कि क्या जरूरत थी । अरे सीधा सीधा मुझसे कहते तो, क्या मैं खा जाती तुम्हे, अरे मंद बुद्धि बोल देता सीधे सीधे के मैं तेरी काजोल हूँ तो मैंने भी बोल देना था कि तू मेरा शाहरुख़ खान हैं । 

"क्या" मेरी खुसी का और आश्चर्य का तो ठिकाना ही नहीं रहा ।
अब उसका गुस्सा ठंडा हो गया था और शर्म ने चादर ओढ़ना सुरु कर दिया था, शायद उसे खुद भी पता नहीं था कि उसने खुद ही पहल कर दी थी.

अच्छा एक बात तो बाताओ, क्या मैं सच में काजोल लगती हूँ, जब मैं लाल शलवार शूट पहनती हूँ? मैं लाल शलवार शूट पहन के आउंगी कल । बस इतना कहके वो घर
कि तरफ सरमा के भाग गयी । और मैं अवाक सा खड़ा उसे देखता रहा । मैं सब भूल चूका था वो ख़त, वो बेइज्जती, वो मजाक सब कुछ । उस लड़के को धन्यवाद दिया जिसने ये काल्पनिक पत्र लिखा था । 

अगले दिन शाहरुख़ खान और काजोल एक टाट फट्टी पर बैठे हुए थे, आज काजोल अपनी टाट फट्टी भूल आई थी ।

अमित बृज किशोर खरे
"कसक"


Saturday, June 15, 2013

मेरी कहानी (पार्ट - 3) ------ मेरी आरज़ू....!!!!!



शुबहा के 9 बज चुके थे और मैंने अभी तक अपना बिस्तर नहीं छोड़ा था, देर रात तक गुफ्तगू जो की थी। नीचे से आवाज़ आई. "सुबह हो गई नबाब साहब, नीचे आजायो, और नास्ते के ऊपर कृपा करो।"

 

ये मेरी छोटी बहन गौरी की आवाज़ थी। मेरी जिन्दगी में पापा के बाद गौरी ही सबसे प्यारी थी। मां तो कब का हमें छोड़ के जा चुकी थी, वो भी थक चुकी थी अपनी छोटी बहू का इंतजार करते करते। जब तक जिन्दा थी तो रोज मुझसे कहती के "शादी कर ले" "शादी कर ले", पर मैं शायद किसी और के इंतजार में था।

 

मैं प्रिया का इंतजार कर रहा था, उसी से रात भर बात किया करता, उसके बारे में सोच सोच कर बेबजाह भी मुस्कुरा देता, सारे घर वालों को मेरी मुस्कराहट का राज पता था। और सब खुश भी थे कि मैं प्यार में है। सब को पता था कि प्रिया कौन है, और सबको वो पसंद भी बहुत थी। पर मुझसे इस बारे में बात करे कौन? "आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो बांधे कौन?"

 

प्रिया और मैं करीब तीन सालों से साथ थे, पहले हम दोनों को पता ही नहीं था के आखिर ये साथ कहाँ तक और कब तक रहेगा। बस एक दुसरे का साथ अच्छा लगता था तो साथ थे। फिर कुछ वक़्त साथ बिताते बिताते मुझको अहसास हो चूका था के ये प्यार है, पर प्रिया शायद अभी भी नादान थी, वो कुछ ज्यादा ही वक़्त ले रही थी।

 

मैं और मेरा भाई उस रात पार्टी में थे जब प्रिया का SMS आया, बस हाल चाल पूँछा  था, और मैंने भी उसी अंदाज मे जबाब दे दिया। कुछ पल बाद ही प्रिया का दूसरा SMS आया, उसमे लिखा था "Do you love me?" मेरा सारा का सारा नशा उतर गया। मुझे लगा के जैसे पी तो मैं रहा है और नशा उसे हो रहा है। एक पल के लिए तो मैंने सोचा के प्रिया आज मजे लेने के मूड में है या फिर एक दो पैग उसने भी लगा रखी है फिर एक पल बाद याद आया के वो तो पीती ही नहीं। मैंने फिर कुछ ना सोचा और बोल दिया "Yes.!! I love you".

 

फिर जबाब आया

"Are you kidding?"

"No I am not, I am serious" मैंने आयो देखा ना तायो और तुरंत ही जबाब दे दिया।

"Will talk to you later" एक अनसुलझा सा जबाब देकर प्रिया के SMS आने बंद हो गये। और मैंने भी फिर कुछ नहीं कहा, अपना ड्रिंक ख़तम किया और बापस घर के लिए रवाना हो गया।

करीब आधी रात को प्रिया का SMS आया, "I can't believe that you love me" मैंने उस वक़्त जबाब देना कुछ सही नहीं समझा और सो गया।

 

दूसरे दिन हम दोनों ने दिन भर बातें कि, और मुझे लगा के मेरा सपना पूरा हो गया। मैंने जिसे चाहा वो मुझे मिल गया था। सच बताऊ जेठ कि दुपहरी भी ढंडक देने लगी थी, चाँद में उसकी तस्वीर साफ नजर आने लगी थी और हर एक हवा का झोंका उसकी महक अपने साथ लाने लगा था।

 

वो अपनी हर छोटी से छोटी बात मुझे बताती, अपने स्कूल कि, अपने घर कि, अपने कॉलेज कि, हर बात और मैं उन्हें बड़े प्यार से सुनता था। उसने अपनी हर एक कहानी को दसो बार दुहराया होगा पर हर बार मुझे उसकी बही पुरानी कहानी नई सी लगती थी। मैं, उसकी कहानी नहीं, उसकी आवाज़ सुनता था, उसकी चहकती सी आवाज कानों मै एक मीठा रस घोलती थी।

 

पर ये सब बातें शायद कुछ पल कि ही मेहमान थी। मेरे घर पे शादी कि बातें चल रही थी, हालाकि मेरी मां इसका इंतजार करते करते अलविदा कह चुकी थी, पर अब मेरे पापा को मेरी शादी का बेसब्री से इंतजार था।

 

मैंने कई बार उससे शादी को लेकर बात कि, और उसे हर वक़्त, कुछ और वक़्त कि जरूरत थी, हर बार वो वक़्त ही मांगती, और हर बार मैं उसका इंतजार करता। मेरे और प्रिया के बारे में अब घर में बातें भी बनने लगीं थी। प्रिया जितनी घर में पसंद हुआ करती थी, अब धीरे धीरे घर वालों कि नज़रों से उतरती जा रही थी, हर एक कि जुबां पर सिर्फ एक ही सबाल था कि आखिर वो लड़की शादी क्यों नहीं कर रही है, कोई कहता के वो बस टाइम पास कर रही है तो कोई कहता कि उसे करनी नहीं है, जितने मुह उतनी बातें. पर सच्चाई तो सिर्फ मैं जानता था, एक एसी सच्चाई जो मैंने किसी को नहीं बताई थी।

 

मैंने प्रिया से इस बारे में फिर से बात कि, और घर कि सारी बातें बताई।  

"तुम थोडा और इंतजार कर सकते हो मेरे लिए?" उसने बड़े प्यार और अधिकार से मुझसे कहा ।

"हाँ कर सकता हूँ, पर कब तक? घर में अब हमारा मजाक बनने लगा है, मैं अपने घर वालों को और परेशान नहीं कर सकता।

"बस एक महीने का और वक़्त दे दो मुझे, इतना बड़ा फैसला लेने से पहले अपने आप को तैयार भी करना पड़ेगा ना"

"ठीक है अगले महीने मेरा जन्मदिन है, उसी दिन तक का वक़्त है तुम्हारे पास।" मैंने बड़ी मजबूरी में प्रिया को एक महीने की मोहलत और दे दी थी, पर शायद मुझे ये वक़्त नहीं देना चाहिए था।

 

फिर हर रोज हम बातें करते और मैं सोचता कि उसे याद दिला दूँ कि एक दिन और निकल गया, पर मन ही मन ये सोच के रह जाता के कहीं येसा कह के मैं उसपर किसी तरह का दवाव तो नहीं डाल रहा, और फिर कुछ ना कहता। कुछ दिन और निकल गये येसे ही।

 

और एक दिन उसने मुझसे कहा कि वो शादी कर चुकी है, और अब वो प्रिया राज बजाज हो चुकी है। हालाकि उसने ये बात मुझे पहले ही बता रखी थी कि, एक लड़का उसे दुनिया मै सबसे ज्यादा प्यार करता है, और वो भी उसे चाहती है। पर मेरे प्यार कि आंधी में वो अपने आप को रोक ना सकी और बह गई। मुझे इस बात का अहसास था कि मैं उस लड़की से प्यार कर रहा हूँ जो उसकी कभी हो ही नहीं सकती, पर फिर भी, "सावन के अंधे को हरा हरा ही दीखता है", प्यार तो प्यार है बस हो गया था। और सोचने लगा कि शायद वो मिल जाएगी, और इस शायद में, मैंने शायद पूरी ज़िन्दगी जी ली थी।

 

किसी ने ठीक ही कहा है जब जिन्दगी जीने कि बात आये तो उसके साथ जियो जो तुम्हे प्यार करता हो, ना कि उसके साथ जिसे तुम चाहो। प्रिया ने उसे चुना जो उसे सबसे ज्यादा प्यार करता था, वो प्यार में थी और वो बिलकुल सही थी। जो प्यार में होते हैं वो बिलकुल सही ही होते हैं। शायद मेरा प्यार उस इंसान के सामने बौना था।

 

मैं टूटता जा रहा था, नाराज़ हो रहा था अपनी जिन्दगी से, पर प्रिया अब भी मुझसे कहती थी के वो मेरे साथ है, ये कैसा साथ? वो अब भी नहीं जान पा रही थी कि अब सब बदल गया है, वो शादी के एक पवित्र बंधन में बंध चुकी है। वो किसी और कि हो चुकी है हमेसा के लिए।

 

मुझे उसको दिए हुए वक़्त का खामियाजा मिल चूका था, और अब मैं उस रास्ते से हट चूका था। पर प्रिया अब भी मेरे रग रग में समायी थी, घर के हर कोने में वो'ही दिखती थी। मुझे उसकी हर एक बात याद थी, उसकी वो सारी कहानियाँ, जो उसने दसो बार सुनाई थी, मुँह - जुबानी याद थी मुझे।

 

मेरी बहन गौरी जो मुझे सबसे ज्यादा समझती थी, वो भी समझ चुकी थी के अब कुछ नहीं बचा हम दोनों के बीच, तो बहुत बार चिल्लाई कि छोडो उसे और जो लड़की घर वाले देख रहे है, मिलो उससे सब ठीक हो जायेगा। और जंग में हारे हुये सिपाही ने आत्म-समर्पण कर दिया, हाँ, मैंने शादी के लिए हाँ कह दी थी।

 

आरजू ये बही लड़की थी जिसको घर वालों ने चुना था, उससे एक या दो बार मिलने के बाद मुझे उसकी आँखों में वही अहसास दिखाई दिया जो कभी प्रिया कि आँखों में उस लड़के के लिए हुआ करता था, जिससे उसने शादी कि थी। वो अहसास था "सिर्फ मेरा" होने का। आरजू कि आँखों में वही अहसास था कि मैं "सिर्फ उसका" हूँ और वो "सिर्फ मेरी" । ये अहसास बहुत प्यारा और बहुत अपना लगा मुझे।

 

अब आरजू को अपनी आरजू बनाने का वक़्त आचुका था ।।

 

तो दोस्तों आखिर में बस दो बातें कहूंगा एक कि जो होता है अच्छे के लिए होता है और दूसरा कभी अगर वो वक़्त मांगे तो देना मत।

 

अमित बृज किशोर खरे

"कसक"