Saturday, April 6, 2013

मेरी कहानी (पार्ट - 1) बस नम्बर 522


आज बस ड्राईवर भी शायद घर जाने की जल्दी मे लग रहा था तभी तो ऑफिस से घर तक का रास्ता डेढ़ घंटे की बजाय 45 मिनिट्स मे ही तय कर लिया. मैं बस में बैठा शीशे के बाहर लोगों को इस शहर की भागमभाग भरी जिन्दगी में उदाश और निराश, भागता हुआ देख रहा था.

ये 522 नम्बर बस का रूट भी बड़ा अजीब है ये सपनो की उस दुनिया ले जाती है जिसमे हम जैसे लोग रोज़ रंग भरके दूर आकास में निकल जाते है पर कुछ देर बाद उसी बस्ताबिकता की जमीन पे आगिरते है.

मै के. जी. मार्ग से बैठता हूँ रोज, सी. पी. के नए नए रंग देखता हुआ इंडिया गेट पंहुचा जहाँ कोई पिता अपने बच्चे को कंधे के बिठाये हुए उसे मौषम का मिजाज़ बता रहा था. पर उनका नन्हा सा शैतान तो कुलकी के मजे में मस्त था.

जैसे कभी मैं पापा के साथ उनके ऑफिस चला जाया करता था. पापा पोस्ट ऑफिस में पोस्ट मास्टर हुआ करते थे, वो अपने ऑफिस के काम में मस्त रहते और में सारे ऑफिस को अपना खेल का मैदान बना लिया करता था. जब भी जाता था टॉफ़ीयां से जेब भर के लाता था जिनसे अगले एक हफ्ते का काम चलता था. फिर जब टॉफ़ीयां  ख़तम हो जाती तो फिर से जिद करता ऑफिस चलने के लिए.

वो टॉफ़ीयां आज भी याद आतीं हैं, उनमे जो मिठाश थी वो अब बाज़ार से खरीद के खाने मे नहीं है, वो टॉफ़ीयां नहीं थीं सुनहरी सी रंगीन कवर में लिपटा हुआ ढेर सारा प्यार और दुलार था, जो अब इस शहर मे नहीं.

बस इंडिया गेट से निकल के खान मार्केट की रेड लाइट पे रुकी थी, एक बहुत प्यारा सा प्रेमी जोड़ा बस के सामने से गुजरा और मार्केट में कही खो गया, शायद ये शहर इन्ही के लिए बना है. 8 साल गुजारने के बाद भी न तो इस शहर ने मुझे अपनाया और न ही मे इसे अपना बना पाया,. मेरा फ्लेट आज भी मेरा कमरा है मेरा घर वो नहीं बन सका.

बस लोधी रोड होते हुए जवाहर लाल स्टेडियम  पहुची जहाँ से कुछ खिलाडी भी चढ़ गए शायद होकी खेलते होंगे वो. बैसे से ही मैं क्रिकेट का दीवाना रहा हूँ, बच्मन मे सपना भी था इंडिया की तरफ से खेलूँगा, बैसे इंडिया में हर दूसरे लड़के का यही सपना होता है, मैं सचिन तेंदुलकर बनना चाहता था, हालाकि अस्लियत में विकेट कीपरिंग किया करता था. उन्हें देखा और बस क्या था सपनो के समुन्दर मे गोता लगाने मे देर न लगी.

वो हलकी हलकी सर्दियाँ सुरु ही हुई थी और हमारे गाँव के परान के मैदान पे हमारे गाँव रक्सा की टीम और झाँसी शहर की स्टार टीम में सीरिज़ का तीसरा और आखिरी मैच चल रहा था. हम लोग बेटिंग कर चुके थे और मैंने कुछ अच्छा नहीं खेला था, पर फिर भी ठीक ठाक स्कोर कर लिया था.

स्टार टीम खेल रही थी और जीतने के लिए कुल 16 रन चाहिए थे, हमारे भी स्टार बोलर गिन्नी रजा और दीपक गुप्ता मोर्चा सम्हाले थे. पर शायद वो मेरे लिए अच्छा दिन नहीं था.

आखिरी ओवर था, गिन्नी अटैक पे था, और जीतने के लिए कुल 9 रन, गिन्नी के ओवर मे कोई 6 बौल्स पे 6 रन बना ले तो हम उसे तीस मारखा समझते थे वो धार थी उसकी बोलिंग मे. आखरी गेंद और जीतने के लिए सिर्फ 4 रन, हम मैच जीतकर सीरिज़ जितने की कगार पे थे, तभी गेंद ने मेरे दस्तानों से लुका-छुपी खेली और थर्ड मेन से होते हुए बॉर्डर पर कर गई. हम मैच हर चुके थे और कप्तान गिन्नी राजा के मुखमंडल से जो प्रबचन सुने थे और कोच गोविन्द भाईसाहब की जो लातें खायी थी आज भी नहीं भूला उन्हें, वो लम्हे आज भी कहीं सम्हाल के रखे है मैंने.

अब मेरा सपनों का बगुला उतरने की फ़िराक मे था, या यूँ कहे की 522 बापिश मुझे मेरी असल जिंदगी मे ले जाने वाली थे. खानपुर, जहाँ मेरा कामरा है.

और बस से उतरने के बाद, उन टूटी गलियों मे अपने आप को खोज सा रहा था में.

1 comment:

Gulabo said...

Aagey ki kahani ka besabri se intzaar hai...