वो मुहब्बत भी मुझे, बे-पनाह देता है....
देता है जब दर्द, तो बे-परवाह देता है.....
मर्ज़ देकर मेरा हकीम मुझे,,,
हकीम के पास जाने की सलाह देता है....
वो नफरत भी करता है तो शादगी से,,,
हमारे जुनून को एक इल्जाम देता है....
कोई जाके कह दे मेरे हम-नवा से,,,,
वो जब भी देता है, नया फरमान देता है....
मुफ्लिशी में खुद की, फ़क़त आरज़ू नहीं,,,,
अब खुदा भी रत्ती भर जिंदगी में, अहशान देता है....
ये आदत है मेरी, या तफरीह का मलाल,,,,
जो भी हो 'कसक' अब मुस्कान देता है.......
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"
देता है जब दर्द, तो बे-परवाह देता है.....
मर्ज़ देकर मेरा हकीम मुझे,,,
हकीम के पास जाने की सलाह देता है....
वो नफरत भी करता है तो शादगी से,,,
हमारे जुनून को एक इल्जाम देता है....
कोई जाके कह दे मेरे हम-नवा से,,,,
वो जब भी देता है, नया फरमान देता है....
मुफ्लिशी में खुद की, फ़क़त आरज़ू नहीं,,,,
अब खुदा भी रत्ती भर जिंदगी में, अहशान देता है....
ये आदत है मेरी, या तफरीह का मलाल,,,,
जो भी हो 'कसक' अब मुस्कान देता है.......
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"