तुझ तक पहुँचू या तुझे पास बुलाऊँ,
तुझको छू लूँ, या अपना अहसास कराऊँ।
बही कसमकस, सुबह - साम रहती है,
तुझको पा लूँ या तेरा हो जाऊं।।
दोस्तों, ये चंद अल्फ़ाज़ मेरी पूरी कहानी बयां करने के लिए काफी है। कि कैसे मेरी प्रेम कहानी, कभी रुकी तो कभी चली या कभी रुक्के चली तो कभी चलके रुकी।
बस यही कसक दिल में बाकि थी की मैं अपनी कहानी को पूरा नहीं कर पा रहा था। ना मुकम्मल थी और ना ही सफर जारी था।
ये 2006 की बात है जब हमारा MBA का 2nd सेमेस्टर पूरा होने वाला था और इंटर्नशिप की तैयारी जोर सोर पे थी। तभी भोपाल कैंपस के सालाना उत्सव (annual fest) का इनविटेशन आ गया। सिंगिंग, डांसिंग, डिबेट्स और ना जाने कितने तरह के इवेंट थे, मैने मन बनाया और प्रिया से चलने के लिए पूंछा।
प्रिया को तो आप जानते ही होंगे ना, लम्बे बॉल, कजरारी आँखे, गुलाबी होंठ, नाक में छल्ला, कान में बाली और गले पे एक पतला सा काला धागा, हमारे कॉलेज की काजोल तो नहीं पर मेरी जरूर थी। उसको पाने के लिए न जाने क्या क्या ड्रामे किये थे मैंने, वो सारे ड्रामे जो एक लड़का कर सकता था। यहाँ तक की सुसाइड करने का ड्रामा भी, जिसे उसने सच मानकर बहुत आँशु बहाये थे। तब कहीं जाके वो मेरे प्यार में गिरी थी।
'पापा नहीं मानेंगे यार'। अच्छा, डायलॉग उसने भोपाल ना जाने के लिए बोला था। फिर मैंने भी अपना बिचार बदल दिया और अंदर ही अंदर मुस्कुराने और बुदबुदाने लगा की कल तो आधे से ज्यादा कॉलेज भोपाल में होगा, क्लासेज होंगी नहीं और मैं सारा दिन प्रिया के साथ बातें करूँगा।
सुबह अच्छे से नहा - धोकर, पार्क एवेन्यू का परफूम लगाकर, नयी जींस जो भाई की शादी के लिए खरीदी थी, उसे पहनकर और उसकी पसंद वाली टी शर्ट डालकर, कॉलेज पहुंच गया, आधा कॉलेज खाली था। अब तो मन में लड्डू फूटने लगे थे। मैं इंतज़ार में था पर अब तक प्रिया नहीं आयी थी। वो नहीं आयी पर उसकी खबर जरूर आयी।
वो भोपाल गयी थी हमारे ही कॉलेज के एक लड़के किशन के साथ। इतना सुनना ही था की वो सारी गुजरी हुई बातें याद आगयीं जो मेरे दोस्तों ने प्रिया और किशन के बारे में बतायीं थी, जिन पर मैंने कभी भरोसा नहीं किया था और उन दोस्तों से भी अलग रहने लगा था।
आओ देखा न ताओ, रात की गाड़ी पकड़ी और झाँसी से भोपाल पहुंच गया। और सुबह होते ही INC भोपाल कैंपस के गेट पे खड़ा था।
कुछ देर बाद हमारे कॉलेज के सभी साथी जो फेस्ट में हिस्सा लेने गए थे बहां पहुंचने लगे। जैसे ही प्रिया की नज़र मुझपे पड़ी उसने किशन का जो हाथ पकड़ रखा था, छिटक दिया और किशन से कहाँ "ये यहाँ क्या कर रहा है" मुझे आवाज नहीं आयी थी पर मीलों दूर से उसकी खुसबू को पहचानने वाला उसके होंठो की कलाबाजियां न समझे ऐसा कहीं हो सकता था क्या।
मैं एक पल में समझ चूका था कि प्रिया मेरी नहीं थी, कलेजा फट रहा था और मैं उसी रफ़्तार से बिखर रहा था जिस रफ़्तार से वो मेरे पास आरही थी। उस एक लम्हें में, मैंने अपने वो सारे ड्रामे याद किये जो मैंने उसे पाने की लिए किये थे, काश मैं कुछ ऐसा करता की उसका हो जाता।
जबरदस्ती तो हम किसी को सिर्फ पा ही सकते है उसके हो नहीं सकते, उस एक पल में मुझे ये अहसास हो चूका था की वो अभी तक मेरे पास सिर्फ मेरी खुसी के लिए थी, अपनी नहीं।
और जैसे ही प्रिया मेरे पास आई, मुझमें पता नहीं कहाँ से हिम्मत आगयी, उसका हाथ पकड़ा और किशन के हाथों में रख दिया। सॉक मैं भी था सॉक वो भी थी, पर हम दोनों सायद बिखरने से बच गए थे।
मैं खुद से मिल चूका था और वो किशन से।
तो दोस्तों
प्यार पाने का नाम नहीं, उसके हो जाने का है।
खुद में सिमटने का नहीं, उसमें बिखर जाने का है।।
साथ चलने का भी है, और ठहर जाने का भी है।
सिर्फ डूबने का नहीं, उबर जाने का भी है।।
और आखिर में बस एक ही बात कहूँगा, कि किसीको सिर्फ पाने के लिए प्यार मत करना, क्योकि फिर कभी तुम उसके हो नहीं पाओगे।
अमित बृज किशोर खरे 'कसक'