Wednesday, June 17, 2015

मेरी कहानी (पार्ट - 6) - भटकते परिंदे


रात का वक़्त था, मैं झाँसी रेलवे स्टेसन पर उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति का इंतज़ार कर रहा था ट्रेन एक  घंटे की देरी से चल रही थी, और प्लेटफार्म पे पैर रखने की भी जगह ना थी मैं हर बार यही सोचता कि आखिर इतने सारे लोग जाते कहाँ हैं बोरियों में बर्तन, खाने पीने का सामान, सर पे उठाये हुए चल रहे थे देखकर तो लगता थी करीब करीब सात से आठ महीने का रासन होगा सारे एक ही जैसे लोग हर बार प्लेटफार्म पे मिलते अब तो सारे चहरे जाने पहचाने से लगने लगे थे, हलाकि इनमें से मैं जानता किसी को ना था

ये भीड़ उन्ही लोगों की थी जो चैंत काटकर मजदूरी के लिए सहरों की और चल दिए थे चैंत तो समझते ही होंगे आप, चैंत मतलब "गेहूं की फसल" अब सिर्फ किसानी से पूरे परिवार का पेट ना भरता था जहाँ कभी एक परिवार के पास हज़ारों बीघा ज़मीन हुआ करती थी बहीं अब इतनी भी ज़मीन नहीं के जिसमे अपनी कब्र खुदवा सकें   सभी छोटी जोत के किसान थे और परिवार बड़ा, दो जून की रोटी मिल जाये बही बहुत, फिर उस पर बाल-बच्चों की शादी, होली दिवाली, तीज त्यौहार के ख़र्चे सो अलग ये बही किसान था जो हमें रोटी देता है और अपनी दो वक़्त की रोटी के लिए अपनी मिटटी, अपनी माँ से दूर जा रहा है वो एक ऐसे परिंदों का झुंड था जो पतझड़ में उड़कर दूसरी जगह जाने को मजबूर था सिर्फ दो वक़्त की रोटी के लिए  

चहरे सारे सूखे थे पर आँखों में उम्मीदों का दरिया कल-कल करके बह रहा था एक अजीब सी खुशबू अपनी तरफ खींच रही थी मुझे शायद गॉव की मिट्टी की भीनी भीनी खुशबू थी या आम के पेड़ की छाॉव  या फिर पनघट का पानी या फिर सरसो के खेत की वो लालिमा वो जो कुछ भी था बहुत मन मोहक था शायद वो मेरे गॉव की याद थी

सारे के सारे परिवार एक साथ सफर कर रहे थे, और इनमे से एक परिवार था ग्यासी माते का जो प्लेटफार्म पे मेरे पास ही बैठा था ग्यासी की आँखों ने अब तक करीब करीब सत्तर सावन देख लिए होंगें उसके पांच लड़के और उनकी बहुएं और कई सारे नाती पोता सब साथ में ही सफर कर रहे थे कुछ नाती पोता तो इतने छोटे थे की उनकी माएं उन्हें बही प्लेटफार्म पे ही एक दूसरे की आड लेकर स्तनपान करा रही थी

ग्यासी माते अपनी घरवाली विमला के साथ अपने परिवार से थोड़ी सी दूरी बना के बैठा था बहुएं अपने ससुर से पर्दा जो करती थी आज भी गॉवों में पर्दा प्रथा चलती है जब भी किसी के जेठ बहां से गुजरें या औरतों में कुछ लेने की लिए आये तो सारी बहुएं झट से घूंघट ले लेती थीं

इसी पर्दा की बजह से ग्यासी अलग बैठा, अपनी घरवाली विमला के साथ आने बाले कल का ताना-बाना बुन रहा था ग्यासी ने अभी अभी अपनी एक लड़की की शादी की थी और जो कुछ भी फसल से आया था वो दान-दहेज़ के यज्ञ में स्वाहा हो गया था कुछ ज्यादा जमीन थी ग्यासी के पास, करीब करीब पांच बीघा जमीन रही होगी और पन्द्रह लोगो का परिवार कोई और कमाई का जरिया भी ना था ग्यासी हाथ में सूखी रोटी और नए आम का अचार लिए बैठा था आम तो नए थे पर ग्यासी के दांतों में उतना पैनापन ना था आगे के दांतों ने तो अलविदा कह दिया था और जो बचे कुचे थे वो भी अलविदा कहने की फ़िराक में थे पर ग्यासी ने दांतों को भी अपने परिवार की तरह मजबूती से बांध रखा था

इतने में ही मुन्नू, ग्यासी का पोता, ग्यासी के पास आया और तुतलाती हुई आवाज़ में बोला

“दादा दादा ! हम पहली तारीख तक तो लौट आएं ना ?”
“काये, पहली तारीख कों तुमाओ जन्मदिन है का ?” ग्यासी ने भी तुतलाती हुई आवाज़ में और मुन्नू के कान खीचते हुए कहा
“नहीं दादा ! पहली तारीख कों हमाये स्कूल खुल जैहै, हमें स्कूल भी तो जाने।“ मुन्नू ने कहा
“तोये का डॉक्टर बनने स्कूल जाके, कछु दिनन बाद चले जइयो स्कूल ।“  ग्यासी ने जिस तरह मुन्नू से कहा, मैं सोचने पर बिबस हो गया, की किस तरह की सोच पाल रखी है इन लोगों ने पर मुन्नू की सोच बिलकुल अलग थी उसकी सोच देखी तो लगा की हमारे गॉव भी अब जवान होने लगे हैं
“नहीं दादा, हमें डॉक्टर नहीं बनने, हमें किसान बनने और हमें पतो करने कै बीज में से गेहूं की बाली आत कांसे हैं और हम जितेक बीज डारत है उतेकई तो राजू माते डारत है, फिर बाके घरे एतेक जादा गेहूं काये होत और हमाये इते तनक सो, हमें जो पतो करने और जइसे हमें किसान बनने ।“  मुन्नू बड़ी बेबाकी से बोला
हैओ ! तुम्हे जौ भी पतो करने, सो कर लिए, अबै जाके सो जाओ ।“ ग्यासी को शायद मुन्नू की बात समझ नहीं आई थी इसीलिए सोने के बहाने उसे जाने को कह दिया

पतो नहीं जो पन्वेशरी ट्रैन काबे आहै, अब तो आँखें पथिरा गई जाकी वाट जोहत और ऊपर सै जै मोड़ी मोड़ा नैक आँख नहीं झपकन दै रहे |”

इतने में एक दूसरी ट्रैन प्लेटफार्म पे आके रुकी और कुछ परिवार उस ट्रेन से निकल गए प्लेटफार्म पे थोड़ीसी भीड़ कम हुई तो जिस कुर्सी पे मैं बैठा था उसी पे लेट गया

“बैसे मोड़ा कै तो सही रओ” ग्यासी ने अपनी घरवाली से कहा
“हमें तो कछु समझ में नहीं आओ कै मोड़ा ने कई का हती और का बनने हतो बाये ?” विमला ने हलके से बुदबुदा दिया 
“काये तुम्हे याद है वो बा दिना एक कंपनी बालो आयो हतो, अरे बोई जौ एक दवाई दै गओ तो, सब्जियों के कीड़ा मारबे की” ग्यासी ने बड़ी लम्बी सोच के साथ विमला से कहा
“हाँ याद तो है, पर तुमने वो दवाई डारि कहाँ हैं, तुम्हे तो मालूम ही नहीं कै वो डरत कैसे हैं अबै भी घरै धरी धरी सड़ रही, पईसा बर्वाद चले गए बाके तो” विमला को भी मौका मिल गया था सुनाने का
“अबकी बार वो आदमी आहे तो सीख लें और फिर डारें सब्जियां में ग्यासी ने अपनी सफाई में नई दलील दी
“अब का करो डार कै, अब धरो का है सब्जियों में, खुद के खाबे के लाने हो जाये फिर सोचें बैचबे की, कछु मिलत तो है नइयां, ऊपर से गांठ की दमड़ी और लग जात विमला ने कहा
“तो का करें? कैंसे पेट भरें बाल बच्चन को, हमेंतो कछु समझ ना आरई कहते हुए ग्यासी अपनी किस्मत तो कोसने लगा
“हमाई मानो तो जितेक जांगा है बाये बैच-बांच कै मोड़ी-मोड़ा के लाने कोनऊ दुकान डरवा दो, कम सै कम दो वखत की रोटी को तो ठिकानो हो जैहै, अब का धरो जा खेती-बारी में विमला ने कहा
“तुम सही कह रही हो शम्भू की अम्मा, बा मलखान कों देखो, ज़मीन बैच कै गोला (रोड) पै एक पान की  दुकान डाल लई कल बाकि घरवाली आई तो हती तुम्हाये पास अपने झुमका दिखाबे को, याद है ग्यासी बोला
“हाँ हाँ याद  है विमला ने जलन के साथ मुह हिलाया
“हमसे कम जमीन हती बाकि, आज बाको मौड़ा बड़े स्कूल में पड़ रयो है और अब तो बो चमड़ा के जूता पैरन लगो, कल तक तो बाकि औकात चप्पलें खरीदबे की नयीं हती ग्यासी ने आगे कहा
“हा जो तो है विमला ने भी हामी भर दी
“फिर ठीक है, अबकी बार जोई करें, देखत है कोई खरीददार ग्यासी ने भी अपनी राजा मंदी की मुहर लगा दी
ग्यासी की ज़मीन बेचने वाली बात सुनकर मुझसे रहा नहीं गया और बीच में बोल बैठा
“दादा ज़मीन क्यों बेचते हो, वो तो हमारी माँ होती है” ?
“बेटा माँ तो होती है पर जब पेट में आग लगी हो तो खुद को भी बेचना पड़ता है ग्यासी ने एक ही बात में अपनी जिंदगी भर की सीख मुझे दे दी

अब मेरे पास बोलने को कुछ ना था, मेरी ज़ुबान पे ताला पड़ चूका था, बस ग्यासी और उसके परिवार को एक टक देख रहा था कि कैसे आधुनिकता की इस आंधी में वो खुद को समेटे खड़े थे पर कब तक ?
कुछ देर बाद ट्रैन आने की दस्तक हुई, प्लेटफार्म पे भागमभाग मच गई मैं अपने आरिक्छित डिब्बे में बैठ गया पर उस डिब्बे में भी सामान्य टिकट यात्री चढ़ गए थे क्योकि सामान्य डिब्बे में पैर रखने की भी जगह ना थी आधे यात्री दरवाजे पे लटक के यात्रा कर रहे थे मैं जिस आरिक्छित डब्बे में था उसके फर्श पर भी लोग सोने के लिए चादर बिछाने लगे थे टीटी और पुलिस वालों की चांदी थी सभी सामान्य टिकट यात्रिओं से कुछ कुछ बसूल कर ही रहे थे ग्यासी और उसका परिवार भी यहीं इसी डब्बे में था पुलिस वालों ने आकर ग्यासी को जोर से फटकार लगाई, जैसे कोई किसी जानवर को दुत्कार रहा हो
"अरे फकीरों उठो यहाँ से बरना एक आदमी का पांच सौ रुपया जुर्माना लगेगा, हटो डिब्बा खाली करो"
"साहब ! सामान्य डिब्बा में तो पांव रखबे कों भी जगा नहीं, बाल-बच्चा सँगै है, बैठे रंदो साहब" | हाथ जोड़ते हुए ग्यासी ने गुहार लगाई
शायद कुछ रुपया भी दिए ग्यासी ने पुलिस वालों को बरना खाली हाथ तो पुलिस वाले अपने बाप को जाने दे, वो तो गरीब बेचारा ग्यासी था
ग्यासी बहीं बैठा बैठा सो गया, पर मेरी आँखों में नींद बहुत देर तक गायब रही, बस ग्यासी और उसके परिवार के बारे में सोच रहा था इस देश के किसान के बारे में सोच रहा था या कहूँ अंन्यदाता के बारे में सोच रहा था कि कैसे हमें रोटी देने वाला खुद दो वक़्त कि रोटी के लिए दर दर की ठोकरें खाता घूम रहा है |
सुबह ग्यासी और उसका परिवार राजधानी में कहाँ खो गया कुछ पता ना चला, पर बहुत से सबाल पीछे छोड़ गया जिसके जवाब मैं आज भी तलाशता घूम रहा हूँ और रोज ऐसे ही कई परिवार अपनी माँ को छोड़कर या ज़मीन को बेचकर राजधानी में आते हैं और भीड़ में खो जाते हैं |

अमित ब्रज किशोर खरे

"कसक"

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