Saturday, July 30, 2011

यै ज़िंदगी अब मैं तुझे जी कहाँ पाता हुँ !!


रोज़ उसी रास्ते से गुज़रता हूँ,
और उसी सराए में ठहरता हूँ !
वो हर रात बिजली भी जाती है,
और मैं सोते हुए पंखे को जड़ता हूँ !!

सुबहा फिर उसी मुर्गे कि तान से,
बही रोज़ कि चाय और घरवाली कि मुस्कान से !
उठ पड़ता हुँ एक पल में अवाक् सा.
और सोचता हुँ ये तो एक छोटा सा पल था ठहराव का !!

फिर बही रोज़ कि तरहा दुनिया-दारी में उलझ जाता हुँ !
यै ज़िंदगी अब मैं तुझे जी कहाँ पाता हुँ !!

हर रोज़ सोचता हुँ ये क्या है ?
बही रोज़ बाबूजी कि दवाई लाता हुँ,
रोज़ बच्चों को प्यार से समझाता हुँ !
अपनी घरवाली को रोज़ नये दिलासे देता हुँ,
और साम तलक आते-आते खुद ही भुला देता हुँ !!

अब तो वो भी मेरी इस चाल को समझ चुकी है,
तभी तो हताशा से चेहरा लाल, और आँखें झुकी हैं !
और कब तलक मैं उसे यूँही झूठे दिलासे देता रहूँगा,
जो वादा किया था सात फेरों के वक़्त उसे कब पूरा करूँगा !!

हर रोज़ इसी घुटन में मारा जाता हुँ !
यै ज़िंदगी अब मैं तुझे जी कहाँ पाता हुँ !!

अरसा गुज़र गया घर में गुलाब जामुन बने हुए,
अब तो बच्चे भी रहते हैं हमसे तने हुए !
उनके जूतों में झांकता हुँ तो पूरा हिंदुस्तान दिखता है,
क्या करें? खरीदने को पैसे नहीं, और आज भगवान बिकता है !!

घरवाली की साड़ी में जितने फूल नहीं उतने थीगरे लगे हैं,
और अब तो बारिश में घर के बिस्तर भी भीगने लगे हैं !
बहन के हाथ भी तो चंद महीनों में पीले करने हैं,
और पुराने पड़े हुए कर्जें भी तो इसी महीने में भरने हैं !!

सोचता हूँ इन सबके बारे में तो डर जाता हुँ !
यै ज़िंदगी अब मैं तुझे जी कहाँ पाता हुँ !!

पर फिर भी इन सबके बावजूद मैं खुश हूँ,
जब देखता हुँ बाबूजी को मुस्कुराते हुये,
अम्मा को अपने पैरों पे लहलहाते हुए !
जब देखता हूँ गुड्डी को,
टूटी गुड़िया को दुलहन बनाते हुये,
और मुन्ने को झूठ-मूठ की साइकिल चलाते हुए !!

मैं खुश हुँ जब देखता हुँ,
अपनी घरवाली को कदम मिलाकर साथ चलते हुए !
अपनी बहन को किसी के लिए सजते-सबरते हुए !!

कसक को ज्यादा कि कसक नहीं। .........

बस इनकी इतनी सी खुशियों में भी, मैं खुश हो जाता हुँ !
पर यै ज़िंदगी अब मैं तुझे जी कहाँ पाता हुँ !!

अमित बृज किशोर खरे "कसक"