सूरज डूबता है तो डूब जाये, मुझे क्या ?
कोई रूठता है तो रूठ जाये, मुझे क्या ?
ये तो हाथों की लकीरों का मलाल है साहब,
कोई छूटता है तो छूट जाये, मुझे क्या ?
लालसाओं की दौड़ है यहाँ कोई सच्चा नहीं,
कौन हारा और कौन जीता, मुझे क्या ?
जो उसने चाहा मैंने सब दिया उसे,
अब वो जाती है तो चली जाये, मुझे क्या ?
हमाम में सब नंगे हैं, क्या तेरी, क्या मेरी
सरकार गिरती है तो गिर जाये, मुझे क्या ?
गलियां सुनसान, रातें वीरान, सारा सन्नाटा है,
कौन मरा और किसने मारा, मुझे क्या ?
मैं तुझे भुला चूका हूँ एक अरसा पहले,
अब तूं इधर आये या भाड़ में जाये, मुझे क्या ?
बस ये तबस्सुम का फरेब है और कुछ नहीं,
अब तेरे होंठ सिलते हैं तो सिल जाएं, मुझे क्या ?
सुंबुल उसका इश्क़ हैं या कमबख्त वो,
अब अरमान बिखरते हैं तो बिखर जाएं, मुझे क्या?
गठरी बांध रखी है ख्वाहिशों की मैंने अब,
किसी की दुनियां उजडती है तो उजड़ जाये, मुझे क्या?
चुप्पी बहुत हुई, अब तांडव होगा,
तेरे आंसू गिरते हैं तो गिर जाएं, मुझे क्या ?
बहुत भर लीं सिसकियाँ अँधेरे में, अब बोलूंगा,
वो बदमान होती है तो हो जाये, मुझे क्या?
कोसों दूर निकल चुके हैं हम उसकी पहुंच से अब,
वो किसी और की होती है तो हो जाये, मुझे क्या?
तूं गैर है, कसक को अब तेरी आरजू नहीं ,
तूं ठहरती है तो ठहर जाये, मुझे क्या?
अमित बीके खरे
"कसक"