कभी सूखती है धुप में,
तो कभी सर्दी में ठिठुर जाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
अनंत दर्द से गुजरती है,
और हंस के हमें दुनियां में लाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
खुद गीले में सोती है,
हमें सूखे बिस्तर में सुलाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
कभी वो बाबर्ची बनती है,
तो कभी गुरु बनके हमें पढ़ाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
हमारी हर फिजूल की बात
वो ना चाहते हुए भी प्यार से सुन जाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
हमें अगर चोट लग जाये तो वो सहम जाती है
हम से ज्यादा वो आसूं बहाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
हम गिरें तो ढाढस
और उठें तो होंसला बढाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
खुद की खुशियाँ कहाँ उसकी
हमारी खुशियों में ही खुश हो जाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
ना दिन देखती है न रात,
बिना रुके बस चलती जाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
हमारे लिए ही जीती है
हमारे लिए ही मर जाती है।
वो माँ ही है जो हमें इंसान बनाती है।
वो माँ ही है जो इंसान बनाती है।
वो माँ ही है जो भगवान बनती है।
वो माँ ही है जो सारा संसार बनाती है।
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"