जिंदगी में पहचान कि जरूरत क्या है,
रिश्तों में अहसान कि जरूरत क्या है।
जरुरत क्या है मिटने की उसकी मुस्कान पे,
उस बेवफ़ा मेहमान की जरुरत क्या है।।
सुबह और शाम की जरुरत क्या है ,
बेहोशी और जाम की जरुरत क्या है।
क्यों फसे हो यार दुनियादारी के झमेलों में,
यूं बेवजह काम की जरूरत क्या है।।
बेबसी और लाचारी की जरुरत क्या है,
इश्क़ के व्यापारी की जरुरत क्या है।
क्या जरूरत है अब सांसों के चलने की,
मर तो रहा हूं, बीमारी की जरुरत क्या है।।
कच्चे पक्के मकानों की जरुरत क्या है,
ऊंचे नीचे कारखानों की जरूरत क्या है।
सब कुछ तो है अरे किस बात की कमी है,
बस कपटी, धूर्त इंसानों की जरुरत क्या है।।
अभिव्यक्ति की आजादी की जरूरत क्या है,
और ज्यादा बर्बादी की जरूरत क्या है।
दुनियां कितनी सुन्दर और सम्पूर्ण है हमारे बिना,
इस बढ़ती हुई आबादी की जरूरत क्या है।।
क्या जरूरत है मिलने और बिछड़ने की,
बेवजह आपस में लड़ने की जरूरत क्या है,
उसका दिया सब कुछ है हमारे पास,
हिन्दू मुस्लिम करने की जरूरत क्या है।।
रिश्ते नाते, सगे संबंधी, अपने पराये, भाई बंधी,
सब को युं बिसराने की जरूरत क्या है।
क्या जरूरत है, ये सोचने की भी अब जरूरत नहीं,
खुद को यूं बहकाने की जरूरत क्या है।।
जो कुछ लम्हे भुला दिए थे, वक़्त के थपेड़ो ने,
उनको जियो, और उधार की जरूरत क्या है।
मिट्टी के घड़े भर के रखो आंगन में, काम आएगें,
किसी और औजार है जरूरत क्या है।।
क्या रखा है खानाबदोश जिंदगी जीने में,
कहीं तो रुको, यूं चलने कि जरूरत क्या है।
क्या जरूरत है मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे की,
"कसक"अब और जलने की जरूरत क्या है।।
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"