एक छोटा सा सपना
है आज भी अपना
कभी परिंदों से
कभी दरिख्तों से
मुस्कुराते देखा
एक अनोखा
सोने के पैरों का
चांदी के सुरों का
एक छोटा सा सपना
है मुझे भरोसा
ना बंद होगा झरोंखा
यकीं का आलम
लहलहाते देखा
प्यार के अज़ाव सा
ख़ुशी के गुलाब सा
लड़कपन का सपना
है आज भी अपना
सुरों में सजी ग़ज़ल
कला का बना महल
लेखक की कविता
ज़िंदगी की सरिता
बहती है उम्र भर
झर-झर झर-झर
आते हैं बांध भी
रूकती है धार भी
एक पल के वास्ते
फिर ढूंडती है नये रास्ते
और चल देती है सागर की तरफ
ना रूकती, ना थमती, ना जमती दुखों की बर्फ
मैं आंशुओं की धार मै
दुखों के मझधार मै
ढूंढता हूँ उस सरिता को
लेखक की उस कविता को
फूल भी तो जीवन जीते हैं
काँटों के घाओ खुद सींतें हैं
माना पतझड़ आते हैं
पर वो भी कुछ सिखाते हैं
ज़िन्दगी एक गाडी हैं
उसमे भी स्टेशन आतें हैं
गाडी रुके ना रुके
हमें चलना हैं
क्योकि हम रही हैं
हमें जाना हैं बहाँ
जहाँ कुछ रंग हैं
ख़ुशी की उमंग हैं
सपनो की तरंग हैं
बस यही ज़िंदगी है
बस यही ज़िंदगी है
अमित बृज किशोर खरे
"कसक"